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नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता)
(७९ अपना प्रयोजन साधने हेतु निश्चय को उपादेय करते हुए और व्यवहार का हेय मानते हुए, अपनी परिणति को उपादेय की ओर झुकाता और हेय की ओर से समेटता हुआ व्यावृत करता हुआ आत्मानुभूति प्राप्त कर, अपना जीवन सफल कर लेता है।
दूसरी “आत्मख्याति' की परिभाषा के अनुसार आत्माश्रित निश्चय और पराश्रित व्यवहार है। यह परिभाषा अध्यात्म की है अर्थात् आत्मानुभूति के लिए परम उपयोगी है। जिस आत्मार्थी ने आलाप पद्धति के कथन अनुसार अपनी आत्मवस्तु का अस्तित्व, अभेद अनुपचार रूप अपने श्रद्धा, ज्ञान में स्वीकार किया है, भेद-उपचार के कथनों को जानते हुए भी उनसे भ्रमित नहीं होता, उनसे रहित अपनी आत्मवस्तु को मानता है। ऐसे आत्मार्थी की, अपनी परिणति में होने वाले अनेक प्रकार के भाव, जो ज्ञान में ज्ञेय के रूप में ज्ञात होते हैं, उनमें हेय उपादेयपना निर्णय करने के लिए उपरोक्त परिभाषा का प्रयोग करता है। आत्माश्रित भावों को उपादेय मानता हुआ मुख्य रखता है, अत: वे ही निश्चय हो जाते हैं।
और पराश्रित सभी भावों को हेय मानकर गौणकर व्यवहार मानकर, उपेक्षित व गौण करते हुए, अपनी परिणति को अभेद के सन्मुख कर, आत्मानुभूति प्राप्त करने का पुरुषार्थ करता रहता है और उसमें सफलता प्राप्तकर जीवन सार्थक कर लेता है।
जिसको आत्मानुभूति प्राप्त नहीं हुई है, ऐसा अज्ञानी भी उपर्युक्त परिभाषाओं के माध्यम से अपने आत्मा के यथार्थ स्वरूप को समझकर एवं आत्मोपलब्धि के मार्ग को भी भलीप्रकार समझकर, निर्णय कर, तदनुकूल परिणमन करने का मार्ग प्रशस्त कर लेता है।
आत्मोपलब्धि में नयज्ञान की उपयोगिता उपर्युक्त स्पष्टीकरणों द्वारा यह तो समझ में आता है कि आत्मा का स्वरूप समझने के लिये तो नयज्ञान उपयोगी है ही, लेकिन
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