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( सुखी होने का उपाय भाग - ५
आत्माति कथन निश्चय एवं पराश्रित कथन वह व्यवहार
- आत्मख्याति उपरोक्त दोनों परिभाषाओं का विस्तारीकरण एवं सरलीकरण ही पं. टोडरमलजी साहब ने उपरोक्त प्रकार से किया है।
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वास्तव में वस्तु तो सदैव ही अभेद एवं एक अखंड ही है । उसका कथन तो भेद, प्रभेद करके किया जा सकता है लेकिन वस्तु को भेद करके खंड-खंड नहीं किया जा सकता। वस्तु तो वस्तु ही है, उसमें अन्य का उपचार करके अन्य रूप कहा तो जा सकता है लेकिन उपचार कर कहने मात्र से वस्तु उपचरित नहीं हो जाती । यही कारण है कि आलापपद्धति ने “ अभेद और अनुपचार रूप वस्तु का निश्चय करना अर्थात् स्वीकार करना, उसको निश्चय कहा है।" और वस्तु को ऐसा ही स्वीकार करने वाली श्रद्धा, निश्चय श्रद्धा अर्थात् यथार्थ श्रद्धा, सम्यक् श्रद्धा है एवं वस्तु को इस ही प्रकार की स्वीकार कर जानने वाली ज्ञान पर्याय, यथार्थज्ञान, अर्थात् सम्यग्ज्ञान है ।
जिसको उपरोक्त प्रकार आलापपद्धति अनुसार की यथार्थ श्रद्धा एवं ज्ञान उत्पन्न हो गया हो, वह वस्तु को अभेद जानते हुए भी, उस ही को समझाने व समझने के लिए, भेद पूर्वक एवं अनेक उपचार पूर्वक समझने, समझाने का प्रयास करता है। ऐसे कथन को ही व्यवहार कथन कहा जाता है । वस्तु को जैसी कहा जा रहा है वस्तु तो वैसी नहीं है, वस्तु तो इन भेटों और उपचारों से अत्यन्त दूर, मात्र अभेद और अनुपचार रूप ही है, ऐसी श्रद्धा एवं ज्ञान अक्षुण्ण बना रहने से, वस्तु को भेदरूप अथवा उपचार पूर्वक कहते हुए भी, श्रद्धा, ज्ञान यथार्थ बना रहता है । अतः यह आगम की मुख्यता वाली परिभाषा है ।
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ऐसी श्रद्धा व ज्ञान वर्तते हुए, आत्मार्थी इसप्रकार के भेद उपचार के कथनों से भ्रमित नहीं होता, वरन् उन व्यवहार कथनों को अपनी श्रद्धा ज्ञान में गौण रखते हुए, अभेद वस्तु को मुख्य बनाये रखता है । फलत:
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