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________________ नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता ) ( ७७ क्योंकि जिस विषय वस्तु को निश्चयनय अभेद अखण्ड कहता है, व्यवहार उसी में भेद बताने लगता है और जिन दो वस्तुओं को व्यवहार एक बताता है, निश्चय के अनुसार वे कदापि एक नहीं हो सकती हैं। जैसा की समयसार गाथा २६ में कहा है :– "ववहारणओ भासदि जीवों देहो य हवदि खलु एक्को । ण दु णिच्छयस्य जीवो देहो य कदा वि एक्कट्ठो ॥ u. “ व्यवहारनय कहता है कि जीव और देह एक ही हैं और निश्चयनय कहता है कि जीव और देह कदापि एक नहीं हो सकते । " यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि व्यवहार मात्र एक अखण्ड वस्तु में भेद नहीं करता, अपितु दो भिन्न-भिन्न वस्तुओं में अभेद भी स्थापित करता है । इसी प्रकार निश्चय मात्र एक अखण्ड वस्तु में भेदों का निषेध कर अखण्डता की ही स्थापना नहीं करता, अपितु दो भिन्न-भिन्न वस्तुओं द्वारा प्रयोजनवश स्थापित एकता का खंडन भी करता है । इसप्रकार निश्चयनय का कार्य पर से भिन्नत्व और निज में अभिन्नत्व स्थापित करना है तथा व्यवहार का कार्य अभेदवस्तु को भेद करके समझाने के साथ-साथ भिन्न-भिन्न वस्तुओं के संयोग व तन्निमित्तक संयोगी भावों का ज्ञान भी कराता है । यही कारण है कि निश्चयनय का कथन स्वाश्रित और व्यवहारनय का कथन पराश्रित होता है और निश्चयनय के कथन सत्यार्थ- सच्चा और व्यवहारनय के कथन को असत्यार्थ-उपचरित कहा जाता है। ( डॉ. भारिल्ल परमभाव प्रकाशक नयचक्र ) उपरोक्त सभी परिभाषाओं का वर्गीकरण करें तो निम्न दो परिभाषाओं में सबका समावेश हो जाता है : अभेद अनुपचार कथन सो निश्चय, भेद तथा उपचार कथन वह व्यवहार । Jain Education International For Private & Personal Use Only आलाप-पद्धति www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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