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(सुखी होने का उपाय भाग - ५
व्यवहारनय है । जैसे- मिट्टी के घड़े को मिट्टी का कहना निश्चयनय का कथन है और घी का संयोग देखकर घी का घड़ा कहना व्यवहारनय का कथन है। ३. जिस द्रव्य की जो परिणति हो, उसे उस ही का कहना निश्चयनय
है और उसे ही अन्य द्रव्य की कहने वाला व्यवहारनय है। ४. व्यवहारनय स्वद्रव्य को, परद्रव्य को व उनके भावों को व कारण
कार्यादिक को किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता है तथा निश्चयनय उन्हीं को यथावत् निरूपण करता है, किसी को किसी में नहीं मिलाता है।
उक्त समस्त परिभाषाओं पर ध्यान देने पर निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते हैं
१. निश्चयनय का विषय अभेद है और व्यवहारनय का भेद। २. निश्चयनय सच्चा निरूपण करता है और व्यवहारनय उपचरित। ३. निश्चयनय सत्यार्थ है और व्यवहारनय असत्यार्थ । ४. निश्चयनय आत्माश्रित कथन करता है और व्यवहारनय पराश्रित । ५. निश्चयनय असंयोगी कथन करता है और व्यवहानय संयोगी। ६. निश्चयनय जिस द्रव्य का जो भाव या परिणति हो, उसे उसी द्रव्य
की कहता है, पर व्यवहारनय निमित्तादि की अपेक्षा लेकर अन्य द्रव्य के भाव या परिणति को अन्य द्रव्य की भी कह देता है। ७. निश्चयनय प्रत्येक द्रव्य का स्वतन्त्र कथन करता है, जबकि व्यवहार
अनेक द्रव्यों को, उनके भावों, कारण-कार्यादिक को भी मिलाकर कथन करता है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि निश्चय और व्यवहार की विषय-वस्तु और कथन शैली में मात्र भेद ही नहीं, अपितु विरोध दिखाई देता है,
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