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________________ नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता) (७५ जिसप्रकार एक सत् का जिस किसी प्रकार से विभाग करना व्यवहारनय का लक्षण है, उसीप्रकार इससे उल्टा निश्चय नय का लक्षण पण्डितप्रवर आशाधरजी लिखते हैं :“कर्ताधा वस्तुनों भिन्ना येन निश्चयसिद्धये। साध्यन्ते व्यवहारो सौ निश्चयस्तद-भेददृक॥" इसीप्रकार का भाव नागसेन के तत्वानुशासन में भी व्यक्त किया गया है : “अभिन्नकर्तृकर्मादिविषयो निश्चयो नयः । व्यवहारनयो भिन्नकर्तृकर्मादिगोचरः ॥ जिसका अभिन्न कर्ता-कर्म आदि विषय है, वह निश्चयनय है और जिसका विषय भिन्न कर्ता-कर्म आदि है वह व्यवहा नयय है।" “आत्मख्याति" में आचार्य अमृतचन्द्र ने जो परिभाषा दी है, वह इसप्रकार है : “आत्माश्रितो निश्चयनय पराश्रितो व्यवहारनयः ।" “आत्माश्रित कथन को निश्चय और पराश्रित कथन को व्यवहार कहते हैं। __ भूतार्थ को निश्चय और अभूतार्थ को व्यवहार कहने वाले कथन भी उपलब्ध होते हैं। अनेक शास्त्रों का आधार लेकर पण्डितप्रवर टोडरमलजी ने निश्चय व्यवहार का सांगोपांग विवेचन किया है, जिसका सार इस प्रकार है :१. सच्चे निरूपण को निश्चय और उपचरित निरूपण को व्यवहार कहते हैं। २. एक ही द्रव्य के भाव को उस रूप ही कहना निश्वयनय है और उपचार से उक्त द्रव्यके भाव को अन्य द्रव्य के भाव स्वरूप कहना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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