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________________ ७४) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ भेदज्ञान की सिद्धि के लिये जो भी अपना प्रयोजन हो उसकी सिद्धी के लिए, जो भी मुख्य हो वह निश्चय हो जाता है और जो भी प्रयोजनभूत नहीं हो वह गौण हो कर व्यवहार हो जाता है। इसप्रकार यह परिभाषा सत्यार्थ है कि “मुख्य सो निश्चय और गौण वह व्यवहार।" इसके अतिरिक्त भी जिनवाणी में निश्चय-व्यवहार की अनेक परिभाषाएँ उपलब्ध हैं। उनका महत्वपूर्ण संग्रह एवं विवेचन डॉ. भारिल्ल द्वारा रचित परमभाव प्रकाशक नयचक्र के पृष्ठ ३९ से ४२ तक में किया है, वह इस प्रकार है : “जिनागम में निश्चय-व्यवहार की अनेक परिभाषाएँ प्राप्त होती हैं। नय चक्रकार माइल्लधवल लिखते हैं : “जो सियभेदुवयारं धम्माणं कुणई एकवत्थुस्य। सो ववहारों भणियो विवरीओ णिच्छयो होई।। जो एक वस्तु के धर्मों में कथंचित् भेद व उपचार करता है, उसे व्यवहारनय कहते हैं और उससे विपरीत निश्चयनय होता है।" इसीप्रकार का भाव आलाप-पद्धति में भी व्यक्त किया गया है :"अभेदानुपचरितया वस्तु निश्चीयत इति निश्चयः । भेदोपचरितया वस्तु व्यवहिर्यत इति व्यवहारः ।। अभेद और अनुपचाररूप से वस्तु का निश्चय करना निश्चयनय है और भेद तथा उपचाररूप से वस्तु का व्यवहार करना वह व्यवहारनय पंचाध्यायीकार इसी बात को इसप्रकार व्यक्त करते हैं :“लक्षणमेकत्य सतो यथाकथण्चियथा द्विधाकरणम्। व्यवहारस्य तथा त्यात्तदितरथा निश्चयस्य पुनः ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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