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( सुखी होने का उपाय भाग - ५
समाधान :-- यह बात सत्य है कि छद्मस्थ का ज्ञान, क्षायोपशमिक होने से मन और इन्द्रियों के माध्यम से कार्य करता है, अतः वह क्रमशः प्रवर्तित होने से संपूर्ण पदार्थ को एक साथ जान नहीं सकेगा। लेकिन जब उपरोक्त अज्ञानी छद्मस्थजीव, जिनवाणी के अभ्यास द्वारा तथा गुरूपदेश द्वारा यथार्थ देशना प्राप्त कर, अर्थात् यथार्थ वस्तु स्वरूप समझकर अपनी रुचि को इन्द्रिय विषयों से व्यावृत कर, आत्म सन्मुख करता है तब, रुचि के साथ अनंतानुबंधी की क्षीणता के कारण, उसका ज्ञान भी विषयों से हटकर अपनी ओर सिमटने लगता है। जैसे जैसे रुचि का वेग स्व की ओर बढ़ता जाता है, ज्ञान भी पर से उपेक्षित बढ़ता जाता है और स्व में एकत्व करने का प्रयत्न बढ़ता जाता है। जब वह रुचि का वेग अत्यन्त उग्रता को प्राप्त हो जाता है तब, पर एवं पर्यायों से अत्यन्त उपेक्षित होकर, सबको गौण करता हुआ; गुण भेदों एवं स्व-पर के भेदों में भी नहीं अटकता हुआ, एक मात्र अपने आत्मस्वरूप - त्रिकाली ज्ञायक भाव में एकत्व को प्राप्त हो जाने से उपयोगात्मक अभेद हो जाता है। और उस समय उस आत्मा के उपयोग का विषय एक मात्र आत्मा रह जाने से तथा अन्य ज्ञेय उपयोग में नहीं रहने से, मन के आलंबन से होने वाला ज्ञप्ति परिवर्तन का भी अभाव हो जाता है, अतः उस समय का उपयोग इन्द्रियों का अर्थात् मन का भी आश्रय छोड़कर अतीन्द्रिय हो जाता है और ज्ञप्ति परिवर्तन के अभाव से आकुलता का अभाव हो जाने से निराकुलता रूपी अतीन्द्रिय आनंद की अनुभूति प्राप्तकर कृतकृत्य हो जाता है । इसीसमय मिथ्यात्व एवं अनंतानुबंधी का नाश क्षय-उपशमक्षयोपशम होकर वह आत्मा सम्यग्दृष्टि हो जाता है। इसी समय के उपयोग को स्व संवेदनज्ञान एवं शुद्धोपयोग भी कहा जाता है ।
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उपरोक्त विषय के विशेष स्पष्टीकरण के लिये, लेखक का सुखी होने का उपाय भाग-३ उसमें भी “मेरी आत्मा अरहंत के समान है” शीर्षक वाला प्रकरण अवश्य पढ़ा जाना चाहिए तथा आचार्य श्री अमृतचन्द्र की
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