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नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता)
(७१ आत्मोपलब्धि प्राप्त करने का वास्तविक उपाय है । इसके अतिरिक्त अन्य किसी भी उपाय के द्वारा आत्मोलब्धि संभव नहीं है।
आत्मोपलब्धि का अर्थ :- आत्मा की प्राप्ति होना। इसका अर्थ हुआ कि अभी तक हमको आत्मा उपलब्ध नहीं था, इस ही का विश्लेषण करें तो हमको स्पष्ट समझ में आवेगा कि हमारे ज्ञान-श्रद्धान में आत्मा अभी तक उपलब्ध नहीं था। उसके स्थान पर मात्र ज्ञेय ही उपलब्ध हो रहे थे। यह तथ्य हमको हमारे वर्तमान ज्ञान के परिणमन से भी समझ में आता है कि, हमारे ज्ञान को जब भी देखें हमको मात्र परज्ञेय ही दिखते हैं, ज्ञायक-आत्मा का तो कहीं अस्तित्व ही नहीं दिखता। अत: जब भी मेरे ज्ञानश्रद्धान में ज्ञेय के स्थान पर ज्ञान अर्थात् ज्ञायक प्रगट हो जावे, वही आत्मोपलब्धि ही है। ऐसी आत्मोपलब्धि मात्र अध्यात्म से ही होना संभव है। ब्रह्मदेवसूरि ने बृहद्रव्यसंग्रह की गाथा ५७ की टीका में अध्यात्म का अर्थ किया है :_ “मिथ्यात्वराग आदि समस्त विकल्पजाल के त्याग से स्व-शुद्धात्मा में जो अनुष्ठान होता है, उसे अध्यात्म कहते हैं।"
उक्त गाथा से फलित होता है कि मात्र अध्यात्म से ही आत्मोपलब्धि संभव है। निश्चयनय एवं व्यवहारनय दोनों अध्यात्म के नय हैं। इसकी यथार्थ समझ से ही आत्मोपलब्धि का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। अत: आत्मोपलब्धि के लिए दोनों नयों का यथार्थ ज्ञान व श्रद्धान होना, यह ही इन दोनों नयों के समझने की यथार्थ उपयोगिता है।
निश्चय-व्यवहार नयों की परिभाषाएँ निश्चय-व्यवहार नय का मूल प्रयोजन तो अपना प्रयोजन जो वीतरागता है, वह प्राप्त करना है। वस्तु के स्वरूप को तो समझ लिया लेकिन समझ लेने मात्र से तो वीतरागता की उत्पत्ति नहीं हो जावेगी? जानी हुई वस्तु में से किसका आश्रय छोड़ने से एवं किसका आश्रय ग्रहण करने से, मेरी परिणति सब ओर से सिमटकर एक मात्र मेरे आत्मा में
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