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(सुखी होने का उपाय भाग - ५
है। लेकिन अज्ञानी को, ज्ञानी बनने के लिए प्रमाणरूप वस्तु को नयज्ञान के आधार से समझकर, तथा तदरूप श्रद्धाजाग्रत कर अर्थात् परिणमन कर ज्ञानी बनना चाहिए। तात्पर्य है कि ज्ञानी बनने के लिए गंभीरता, रुचि एवं सावधानीपूर्वक नयज्ञान का प्रयोग करना अति आवश्यक कर्तव्य
नयज्ञान से आत्मा को कैसे समझा जा सकेगा ?
आत्म वस्तु तो, सामान्य विशेषात्मक, द्रव्य पर्यायात्मक, नित्यानित्य स्वभाव एवं भेदाभेद स्वभाव वाली एक ही समय में निरंतर विद्यमान है। हमारे ज्ञान का भी स्वभाव उन दोनों स्वभावों को एक साथ ही जानने की क्षमता वाला विद्यमान है। लेकिन हमारे ज्ञान में ऐसी सामर्थ्य होते हुए भी, हम छद्मस्थ जीवों के ज्ञान का उपयोग, एक समय में दोनों स्वभावों का एक साथ ज्ञान नहीं कर सकता। जब द्रव्य पक्ष को जानता है तब पर्याय पक्ष को उसी समय नहीं जान सकता और पर्याय पक्ष को जानने के समय द्रव्य पक्ष को नहीं जान सकता। अत: ज्ञानी का ज्ञान तो समग्र वस्तु को एक साथ जान ही सकेगा लेकिन अज्ञानी भी क्रमक्रम से दोनों पक्षों के स्वरूप को समझकर, समग्र वस्तु को समझ सकता है। सम्पूर्ण वस्तु समझ में आ जाने पर एवं श्रद्धा जम जाने पर, ज्ञान भी सम्यक् होकर उस वस्तु का, अनुभव भी कर सकेगा। इसप्रकार समग्र वस्तु का ज्ञान होना संभव है। इसप्रकार क्रमक्रम से दोनों पक्षों के विषय को समझने का पुरुषार्थ करना हमारा कर्तव्य है।
उक्त वस्तु को समझने के लिए नयों का प्रयोग करने की विधि प्रवचनसार गाथा ११४ की टीका में निम्नप्रकार बताई है :
टीका :- “वास्तव में सभी वस्तु सामान्य-विशेषात्मक होने से वस्तु का स्वरूप देखने वालों के क्रमश: सामान्य और विशेष को जानने वाली दो आँखें हैं :- द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ।
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