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(सुखी होने का उपाय भाग - ५
वस्तु का ज्ञान निरंतर वर्तता है। ऐसे ही ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहते हैं और ऐसे कथन को स्याद्वाद अथवा अनेकांतवाद कहते हैं। उस ही ज्ञानी के ज्ञान द्वारा, वस्तु का जो ज्ञान हुआ वह ही यथार्थ वस्तु की व्यवस्था है। अत: उसका कथन भी प्रमाणिक है और वही वास्तविक वस्तु का स्वरूप
___ इसके विपरीत अज्ञानी के ज्ञान में समग्र प्रमाणरूप वस्तु जानने में नहीं आई है अत: उसका ज्ञान यथार्थत: सम्यग्ज्ञान नहीं हुआ। मिथ्याज्ञान होने से वस्तु को मुख्य-गौण व्यवस्था द्वारा जानने में असमर्थ रहता है, अत: उसका ज्ञान भी एकांत अर्थात् मिथ्या रहता है और कथन भी समीचीन नहीं हो सकता। लेकिन अज्ञानी, आत्म-वस्तु को समझने के लिए उपरोक्त व्यवस्था पूर्वक ही वस्तु को समझ सकता है। इसप्रकार अज्ञानी के ज्ञान में प्रमाण रूप वस्तु का ज्ञान तो वर्तता नहीं है फिर भी वह नयज्ञान के प्रयोग द्वारा, उस प्रमाण ज्ञान के विषयरूप वस्तु को समझ तो सकता ही है। इस ही भाव का आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने समयसार गाथा ८ में समर्थन किया है।
अर्थ :- “जैसे अनार्य म्लेच्छ जन को अनार्य भाषा के बिना, किसी भी वस्तु का ग्रहण कराने के लिए कोई समर्थ नहीं है, उसीप्रकार व्यवहार भेटकथन के बिना परमार्थ का उपदेश देना अशक्य है।" ॥८॥
इसी विषय को स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचंद्र इसी गाथा की टीका के अंत में कहते हैं कि :_ “इसाकार जगत तो म्लेच्छ के स्थान पर होने से, और व्यवहारनय भी म्लेच्छ भाषा के स्थान पर होने से परमार्थ का प्रतिपादक कहनेवाला है इसलिए, व्यवहारनय भेदकथन द्वारा स्थापित करने योग्य है, किन्तु ब्राह्मण को ग्लेच्छ नहीं हो जाना चाहिए इस वचन से वह व्यवहारनय, भेदकथन अनुसरण करने योग्य नहीं है, अर्थात वस्तु को वैसा ही मान लेने योग्य नहीं है।"
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