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________________ नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता ) (६१ नित्य स्वभावी आत्मा विद्यमान रहते हुए भी, अनित्य स्वभावी एक समयवर्ती पर्याय में, अनेक गुणों संबंधी अनेक प्रकार के भाव भी अनुभव में आ रहे हैं। पर्यायों के वे अनेक प्रकार के भाव, आत्मा का भेदस्वभावीपना भी प्रसिद्ध कर रहे हैं। उपरोक्त सभी कारणों से यह सिद्ध होता है कि आत्मा तो हर समय ही नित्यानित्य स्वभावी एवं भेदाभेद स्वभावी ही अनादिअनंत विद्यमान रहता है । ऐसी आत्मा को समझने का उपाय मात्र एक नयज्ञान ही है। उपरोक्त अनेकताओं के बीच फंसी हुई आत्मा को समझने के लिए उपरोक्त दोनों स्वभावों का संक्षेपीकरण करें तो, आत्मा नित्य स्वभावी ही, अभेद-स्वभावी भी है। अत: दोनों स्वभाव उस एक ध्रुव स्वभावी वस्तु के ही है, जिसको शास्त्रीय भाषा में परमपारिणामिक-भाव, त्रिकाली ज्ञायक-भाव, ध्रुवतत्व, अपरिणामी-तत्व आदि-आदि अनेक नामों से सम्बोधन किया गया है। दूसरी ओर अनित्य-स्वभावी-पर्याय के द्वारा ही भेदपक्ष प्रसिद्धि को प्राप्त होता है । अत: भेदस्वभावी एवं अनित्य-स्वभावी दोनों पर्याय ही हैं। इसी को गुणभेद, पर्यायभेद एवं अनेक अनेक प्रकार के भावों को प्रकाशित करती हुई उस पर्याय को ही, जिनवाणी में अनेक नामों से सम्बोधित किया गया है। इसप्रकार दोनों पक्षों में से, अकेले द्रव्य-पक्ष को जानने वाले ज्ञान को एवं समझने की प्रणाली को द्रव्यार्थिकनय कहा जाता है और दूसरे पक्ष अर्थात् पर्याय-पक्ष को जानने वाले ज्ञान एवं समझने की प्रणाली को पर्यायार्थिनय कहा जाता है। ज्ञानी का ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाने से, उस के ज्ञान में प्रमाण रूप समग्र वस्तु का ज्ञान परोक्ष रूप से वर्तता ही है। अत: वह ज्ञान जब द्रव्यार्थिकनय के द्वारा वस्तु को जानता है, तब उसका ज्ञान पर्यायार्थिकनय के विषय को गौण रखता है और जब पर्यायार्थिकनय के द्वारा वस्तु को जानता है तब उसका ज्ञान द्रव्यार्थिकनय के विषय को गौण रखता है। इसप्रकार उसके ज्ञान में मुख्य-गौण व्यवस्थापूर्वक समग्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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