SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६०) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ प्रकरण जो पृष्ठ ९६ से प्रारंभ होता है उसको, एवं भाग ३ के “नयज्ञान एवं उसकी उपयोगिता प्रकरण जो पृष्ठ ४७ से प्रारंभ होता है तथा, उसी भाग के निश्चयनय एवं व्यवहारनय वाला प्रकरण जो पृष्ठ ८८ से प्रारंभ होकर १०८ तक चलता है। संपूर्ण विषय को यथार्थ वस्तु स्वरूप समझने के लिए, नयों की उपयोगिता पूर्ण मनोयोग पूर्वक समझना चाहिए। विस्तारभय से यहाँ इस विषय की पुनरावृत्ति नहीं की गई है। इसप्रकार उपरोक्त सभी अध्ययनों से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि द्रव्य पर्यायात्मक अभिन्न वस्तु को समझने के लिए हमको, नयज्ञान के प्रयोग द्वारा, समझने के समय, दोनों पक्षों में से एक को गौण तथा दूसरे पक्ष को मुख्य रखकर ही, विपरीत स्वभाव वाली अपनी आत्म वस्तु को समझना पड़ेगा; अन्य कोई उपाय नहीं है। ___ समझने के लिए नयज्ञान का प्रयोग क्यों ? मेरी आत्मवस्तु अनंतगुणों के समुदायरूप एक वस्तु है। साथ ही वह समग्र वस्तु, हर समय ध्रुव रहते हुए, पलटती भी रहती है तथा उस आत्मवस्तु में, गुणों की अपेक्षा भेदपक्ष भी है तथा वे गुण आत्मा में अभेद होने से, अभेद पक्ष भी हर समय विद्यमान है। यही भेदाभेदात्मक वस्तु हरसमय ध्रुव रहते हुए पलटती भी रहती है इसलिये वह अनंतगुणों का समुदायरूप-अभेद होने से, अनंतगुण भी हरसमय पलटते रहते हैं। यही कारण है कि आत्मा के हर समय पलटन में, अनेक प्रकार के भाव एक साथ ही होते हुए, हमारे अनुभव में आते हैं। जैसे क्रोध उत्पन्न होते समय, चरित्रगुण की पर्याय क्रोधरूप हुई उसी समय क्रोध होने की जानकारी ज्ञानगुण में हुई, श्रद्धा की विपरीतता ने यह क्रोध मैंने किया ऐसी श्रद्धा कर ली, वीर्यगुण ने सबको बलाधान प्रदान किया, सुख गुण की विपरीतता ने उसका दुःखरूप वेदन किया। इस ही प्रकार अन्य अनेक गुणों का कार्य भी उस एक ही समय होता हुआ अनुभव में आता है। इससे सिद्ध होता है कि एक क्रोध की उत्पत्ति काल में ही, अभेद एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy