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( सुखी होने का उपाय भाग - ५
उपरोक्त प्रमाण ज्ञान से ग्रहण की गई वस्तु में, सामान्य अर्थात् नित्य भाव एवं विशेष अर्थात् अनित्य भाव, दोनों विपरीतं भाव एक साथ विद्यमान हैं । लेकिन वह हम छद्मस्थ जीवों के ज्ञान का विषय एक साथ नहीं बन सकता। इसलिए जब नित्य पक्ष को जानेगा तो अनित्य पक्ष रह जावेगा और जब अनित्य पक्ष को जानेगा तो नित्य पक्ष रह जावेगा । अज्ञानी को अनादिकाल से वस्तु की पहिचान ही नहीं होने से वस्तु का अज्ञान है । उस अज्ञान को दूर करने के लिए समग्र वस्तु के स्वरूप को पहचानने-समझने के लिए क्रम-क्रम कर दोनों पक्षों के द्वारा उस अभेद वस्तु को ही समझना पड़ेगा ।
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उक्त दोनों पक्षों को क्रमशः जानने की पद्धति का नाम ही नयज्ञान है । नित्यपक्ष को जानने वाले ज्ञान को द्रव्यार्थिकनय कहते हैं । अनित्य पक्ष को जानने वाले ज्ञान को पर्यायार्थिकनय कहा गया है। ज्ञानी का ज्ञान सहज रूप से नयज्ञान रूप ही परिणमने लगता है । क्योंकि उसका ज्ञान तो समग्र वस्तु को परोक्ष रूप से जानने वाला ही रहता है। लेकिन अज्ञानी इस ही नयज्ञान से, ज्ञानी बनने तक वस्तु स्वरूप को समझने के लिए इसका उपयोग करता है अर्थात् इस ही नयज्ञान के द्वारा समग्र वस्तु का स्वरूप, क्रमक्रम से समझकर यथार्थ निर्णय करता है ।
इस संबंध में कतिपय आगम प्रमाण निम्नप्रकार हैं :प्रमाण का स्वरूप आलापपद्धति सूत्र ३४
“सम्यग्ज्ञानप्रमाणं” ॥ ३४ ॥
अर्थ :
-- सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहते हैं ।
"सकलादेशग्राहिज्ञानंप्रमाणं"
अर्थ : वस्तु के सामान्य विशेष आदि परस्पर विरोधी सकल अंशों को ग्रहण करने वाले ज्ञान को प्रमाण ज्ञान कहते हैं ।
प्रमाण का विषय परीक्षामुख अध्याय ४ सूत्र ।
"सामान्य विशेषात्मातदर्थो विषयः "
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