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नयज्ञान की मोक्षमार्ग में उपयोगिता )
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वस्तु को, जिसमें भेद नहीं किया जा सके, उसमें भी भेद करके समझना, यह नयज्ञान की उपयोगिता है ।
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तत्वार्थ सूत्र अध्याय १ के सूत्र ६ में कहा है " प्रमाण नयैरधिगम : " ॥ ६ ॥
प्रमाण और नयों से वस्तु स्वरूप का ज्ञान होता है । प्रमाण द्वारा ग्रहण की हुई, अभेद वस्तु को भेद करके समझना अर्थात् ज्ञान में लेने का उपाय ही “नयज्ञान" है ।
इसी प्रकार बड़े नयचक्र ग्रंथ, द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र की गाथा २६६ में कहा है कि :
“ तत्त्व के अन्वेषण का जो काल उसमें समय अर्थात् आत्मा को युक्ति अर्थात् नय-प्रमाण द्वारा पहिले जाने, पश्चात् आराधना अर्थात् अनुभव काल में तो, प्रत्यक्ष अनुभव है, नय-प्रमाण नहीं है ॥ २६६ ॥
उपरोक्त आगम प्रमाणों का तात्पर्य यह है कि अभेद वस्तु है वह प्रमाण ज्ञान का विषय है । अरहंत भगवान का ज्ञान प्रमाण ज्ञान है। वस्तु अर्थात् आत्मा में तो नित्यपक्ष और अनित्य पक्ष दोनों पक्ष एक साथ ही हर समय विद्यमान हैं। अत: जैसी वस्तु है उस समग्र को एक साथ जाने वही ज्ञान पूर्ण एवं सच्चा है अर्थात् सम्यग्ज्ञान है इसलिए अरहंत का ज्ञान सच्चा अर्थात् सम्यग्ज्ञान है, वही प्रमाण है ।
उस ज्ञान का विषय तो सामान्य विशेषात्मक समग्र वस्तु होती है । उस समग्र वस्तु को जानने वाले ज्ञान को ही प्रमाण ज्ञान कहते हैं । ज्ञानीछद्मस्थ को भी समग्र वस्तु की यथार्थ श्रद्धा होने के कारण उसका ज्ञान भी परोक्ष रूप से समग्र वस्तु को जानता है । अत: उसका ज्ञान भी सम्यक् होता है । इतना विशेष है कि अरहंत का ज्ञान उस वस्तु को प्रत्यक्ष जानता है और ज्ञानी उसी को परोक्ष जानता है।
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