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________________ ५४) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ जो सत् लक्षण वाला है, जो उत्पाद-व्यय-धौव्य संयुक्त है अथवा जो गुण पर्यायों का आश्रय है, उसे सर्वज्ञ द्रव्य कहते हैं। प्रवचनसार गाथा १०२ का अर्थ - द्रव्य एक ही समय में उत्पाद, स्थिति और नाश नामक अर्थों पदार्थों के साथ वास्तव में समवेत एकमेक है, इसलिए यह त्रिनय वास्तव में द्रव्य है ॥ १०२॥ इसप्रकार उपरोक्त आगम प्रमाणों से भी सिद्ध है कि मेरे आत्मा का अस्तित्व ही इसप्रकार का है कि नित्य भाव एवं अनित्य भाव दोनों प्रकार के भावों रूप ही उसकी सत्ता है। जिनका अस्तित्व ही अभिन्न है, उनको भिन्न कैसे किया जा सकेगा? प्रश्न है कि जब द्रव्य और पर्याय का अस्तित्व ही एक है, तो उनको अलग कैसे किया जा सकेगा ? जिनके द्रव्य एक, क्षेत्र अर्थात् प्रदेश एक, तथा दोनों का परिणमन भी एक है, उनको अलग कैसे किया जा सकेगा? लेकिन जिनवाणी में उनको भिन्न कहकर, उनमें भी भेदज्ञान करने का आदेश दिया है। जिनवाणी में भेद का ज्ञान करने का तो बताया है, लेकिन वस्तु में से निकालकर, अलग करने का तो नहीं बताया। भावों में भिन्नता होने से अर्थात् नित्य से अनित्य विपरीत भाव होने से दोनों एक भी कैसे माने जा सकते हैं ? इससे ऐसा भी विश्वास में आता है कि दोनों की एक सत्ता होते हुए भी भिन्नता भी विद्यमान तो है । अत: एक साथ विरुद्ध भावों की सता एक ही पदार्थ में विद्यमान है। अत: जब सत्ता एक है तो अलग-अलग कैसे किये जा सकेंगे ? एक ही सत्ता के दोनों अंश हैं, अत: अंश अंशी से कभी किसी भी प्रकार से भिन्न नहीं किया जा सकता। फिर भी इस समस्या का समाधान निम्न प्रकार समझना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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