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________________ द्रव्य में पर्याय की स्थिति ) अभिन्न द्रव्य - पर्याय को भिन्न करना अशक्य, लेकिन भिन्न समझना शक्य है 1 यह एक महान् उपलब्धि है कि आत्मा तो अकर्ता स्वभावी है अतः उसके द्वारा कुछ भी कार्य करने का अथवा कराने का विचार रखना तो कल्पना मात्र है, असंभव है, आकाशकुसुमवत् है । आत्मा छहों द्रव्यों से तो भिन्न प्रदेश वाला है ही, भिन्न प्रदेश होने से तो सब प्रकार से भिन्न ही है। लेकिन उनसे भी आत्मा को भिन्न तो नहीं किया जा सकता ? भिन्न समझा ही तो जाता है। शरीर से आत्मा सब प्रकार से भिन्न है । दोनों के द्रव्य, क्षेत्र काल भाव सभी तो भिन्न हैं। यह सब जानते हुए भी, आत्मा उनको भिन्न तो नहीं कर पाता, अपने ज्ञान श्रद्धान में मात्र यह निर्णय कर लेता है कि ये मेरे से भिन्न हैं; मेरे नहीं हैं। आत्मा तो मात्र ज्ञान स्वभावी ही है। अतः यह निर्णय तो अपने ज्ञान में कर लेता है कि शरीर मेरे से भिन्न है, लेकिन भिन्न प्रदेश होने पर भी उसको भिन्न तो नहीं कर सकता । इसका प्रमाण भगवान अरहंत का आत्मा है । वे शरीर को भिन्न मानते हुए भी शरीर को भिन्न नहीं कर पाते ? क्योंकि सब द्रव्य स्वतंत्र हैं, सभी द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायों के कर्ता हैं, वे दोनों अपनी-अपनी पर्यायों के परिणगन काल में, स्वयं के कारण स्वयं ही अलग होंगे। आत्मा का शरीर में और शरीर परमाणुओं का आत्मा में प्रवेश ही नहीं है, अतः एक दूसरे को कैसे अलग कर सकेंगे। तात्पर्य यह है कि चाहे भिन्न पदार्थ हों अथवा अभिन्न पदार्थ हों, सब में भिन्नता, मात्र समझी ही जाती है, लेकिन किसी को भी भिन्न कर देने का सामर्थ्य आत्मा में भी नहीं हैं । अतः द्रव्य और पर्याय के अभिन्न प्रदेश होते हुए भी, भाव भिन्नता तो विद्यमान है ही । इसलिए वे एक तो हो ही नहीं सकते, फलत: इनमें भी भिन्नता है । इस तथ्य को भी मात्र समझना ही तो है अतः ऐसी शंका निरर्थक है कि अभिन्न प्रदेश होने से भिन्नता नहीं हो सकती । जिसप्रकार अन्य द्रव्यों से आत्माको भिन्न समझा गया उसीप्रकार द्रव्य और पर्याय की भिन्नता भी समझी जा सकती है। भिन्नता समझने के लिए भिन्न करना आवश्यक नहीं होता। इतनी बात अवश्य है कि 1 Jain Education International (५५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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