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________________ द्रव्य में पर्याय की स्थिति ) (४९ ऐसी स्थिति में संसार का अभाव करना कैसे संभव होगा ? इसलिए इस विषय को बहुत महत्वपूर्ण समझा जाकर, संसार का मूल कारण मानकर, रुचिपूर्वक गंभीरता से समझना चाहिए। इतनी बात अवश्य है कि जिसप्रकार अन्य द्रव्यों को अपने द्रव्य से भिन्न किया जा सकता है, उसी प्रकार, पर्याय को द्रव्य में से निकाल कर अलग नहीं किया जा सकता। लेकिन पर्याय से भिन्नता मानने के लिए तो पर्याय के प्रति हितबुद्धि, ममत्व बुद्धि, सुखबुद्धि मानना अवश्य छोड़ा जा सकता है । यथार्थतः मैं द्रव्य तो नित्य स्वभावी हूँ, लेकिन यह पर्याय तो मेरे स्वभाव से विपरीत अनित्य स्वभाव वाली है । अतः उस से मित्रता रखने से, ममत्व रखने से तो स्वभाव की ही विराधना होगी, ये तथ्य गंभीरतापूर्वक श्रद्धा में दृढ़तापूर्वक आ जावें तो मेरी पर्याय से मित्रता टूट सकती है। यह एक महत्वपूर्ण कार्य होगा। क्योंकि अपने दुश्मन से प्रेम करने से तो अपने अस्तित्व का ही नाश हो जाने की संभावना रहती है । अत: द्रव्य स्वभाव को एवं पर्याय स्वभाव को गंभीरता एवं रुचिपूर्वक समझना चाहिए । द्रव्य का परिचय नहीं होने से मैं, अपने आपका अस्तित्व, पर्याय जितना ही और जैसा ही मानता चला आ रहा हूँ । पर्याय अनित्य स्वभावी होने से, मैं भी हर क्षण, जीवन व मृत्यु, उत्पाद व्यय का ही वेदन करता हुआ दुःखी दुःखी ही अनुभव करता चला आ रहा हूँ। क्योंकि वेदन तो पर्याय का ही होता है। पर्याय में अहंपना होने से, हर एक पर्याय को अविनाशी बनाये रखने की चेष्टा होना तो स्वाभाविक ही है, लेकिन उसका स्वभाव ही नाशवान होने से उसका दूसरे समय भी बने रहना असंभव है, फलत: निरन्तर आकुलता का वेदन करता हुआ दुःखी ही होता रहता है 1 पर्याय का वेदन अपने में विद्यमान होते हुए भी, द्रव्य स्वभाव को समझकर अपने आपको नित्य स्वभावी मान तो सकता ही है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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