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(सुखी होने का उपाय भाग - ५
तक रहता है लेकिन गरम हालत में तो ज्यादा काल रह ही नहीं सकता। उसीप्रकार भाव भिन्नता भी अस्वाभाविक है, इसलिए जब तक जीव अशुद्ध दशा में रहता है, तभी तक भाव भिन्नता रहती है। अशुद्धता समाप्त होते ही भाव-भिन्नता भी समाप्त होकर, जीव के द्रव्य और पर्याय दोनों द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से, भाव से चारों ही प्रकार से, द्रव्य जैसे ही हो जाते हैं। अशुद्धता में भी द्रव्य, क्षेत्र, काल तो द्रव्य के समान रहते हैं लेकिन मात्र भावों में ही अर्थात् पर्याय के अनुभाग में ही भाव भिन्नता रहती है, द्रव्य जैसी पर्याय नहीं परिणमती । फलत: जब तक भाव-भिन्नता विद्यमान रहती है तब तक जीव की दशा अशुद्ध है और तब तक ही संसार है। अत: संसार का अभाव करने के लिए पर्याय के स्वरूप को समझकर इस भाव भिन्नता को समाप्त करना ही, हमारा कर्तव्य है, इस ही से परमशांति की प्राप्ति संभव है।
भाव-भिन्नता समझने का लाभ क्या ? प्रश्न होता है कि भाव-भिन्नता होते हुए भी, जब भिन्न किये ही नहीं जा सकते तो उनमें भी भिन्नता समझने का प्रयास, मात्र बुद्धि का व्यायाम जैसा लगता है। अत: यह समझ में आना चाहिए कि ऐसा करने से लाभ क्या होगा?
समाधान :- उपरोक्त भिन्नता समझने को बुद्धि का व्यायाम मानना ही बड़ा अज्ञान है। वास्तव में इस भिन्नता को नहीं समझना ही संसार की जड़ है, भूल है। क्योंकि हमारा एवं हर-एक जीव मात्र का द्रव्य स्वभाव तो हर समय अरहंत के समान पूर्ण शुद्ध एवं परिपूर्ण है। लेकिन वर्तमान में, संसारी अशुद्ध आत्मा को, वह द्रव्य ही पूरा का पूरा पर्याय जैसा ही, अशुद्ध विकारी दीनहीन ही अनुभव में आ रहा है। ऐसी स्थिति में, अगर हमको स्वयं अरहंत बनने की भावना जाग्रत हुई है तो, जब तक हमको इस भाव-भिन्नता का अस्तित्व ही आत्मा में मान्य नहीं होगा तब तक, इस के अभाव करने का पुरुषार्थ ही कैसे जाग्रत होगा?
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