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________________ द्रव्य में पर्याय की स्थिति) (४७ है। लेकिन उसी बालिका का जब किसी के साथ मात्र संबंध ही निश्चित हुआ हो अर्थात् सगाई हो गई हो तो, सगाई होते ही वह बालिका अपने होने वाले वर के घर को अपना घर मानने लगती है और अपने पिता के घर को पर का घर मानने लग जाती है। अभी तो उस बालिका के द्रव्य, क्षेत्र, काल सब वैसे-के वैसे ही, जैसे के तैसे ही हैं, उसका द्रव्य, क्षेत्र काल, अभी कुछ भी नहीं बदला है, लेकिन भावों में परिवर्तन हो गया अर्थात् मान्यता में भिन्नता आ गई। उसी प्रकार आत्मा के संबंध में भी समझना चाहिए कि क्षेत्र एक होने पर भी, भावों में भिन्नता होना एवं उनको भिन्न समझा जाना तो संभव ही है। उपरोक्त सभी चर्चा से यह सिद्ध होता है कि द्रव्य और पर्याय में भाव भिन्नता है, यह तथ्य स्वीकार करना ही चाहिए। जब भिन्नता है तो भिन्नता मानना क्यों नहीं हो सकता है? चाहे क्षेत्र अपेक्षा भिन्न करना संभव नहीं हो तो भी भिन्नता तो अवश्य मानी ही जा सकती है। अत: भिन्नता मानकर अपना प्रयोजन सिद्ध करने का उपाय तो अवश्य करना ही चाहिए। भाव भिन्नता भी मात्र अशुद्धजीव को ही होती है? जीव के स्वभाव की अपेक्षा विचार करें तो जब शुद्ध आत्मा के द्रव्य और पर्याय के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव एक से ही रहते हैं तो हर एक आत्मा के भी द्रव्य और पर्याय के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव एक जैसे ही रहने चाहिए, यह तो वस्तु का स्वभाव है। एक जीव द्रव्य के अतिरिक्त, अन्य किसी भी द्रव्य के द्रव्य-पर्यायों के भावों में भिन्नता नहीं होती तथा शुद्ध जीवद्रव्य अर्थात् सिद्ध भगवान में भी भाव भिन्नता नहीं होती। लेकिन मात्र एक अशुद्ध जीव में ही भाव भिन्नता रहती है। वह भी कब तक रहती है, कि जब तक वह अशुद्ध रहता है तब तक ही रहती है। यह तो सर्वमान्य सिद्धान्त है कि स्वभाव में तो हर एक द्रव्य अनन्तकाल तक रह सकता है लेकिन अपने स्वभाव से विपरीत दशा में ज्यादा काल नहीं रह सकता। जैसे पानी ठंडी अवस्था में अनन्तकाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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