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(सुखी होने का उपाय भाग - ५
अभिन्न मानना तो वास्तव में भूल ही थी। वे वास्तव में भिन्न-भिन्न अस्तित्व रखने वाले भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं, उनको अभिन्न मान लेने से तो वे अभिन्न नहीं हो सकते । अत: उनको भिन्न मानना कठिन कार्य नहीं लगता। इसी प्रकार ज्ञान से भी ज्ञेयों को भिन्न मानना कठिन कार्य नहीं लगता, क्योंकि सत् लक्षण वाले वे स्वतंत्र द्रव्य हैं। लेकिन आत्मा की पर्यायों की स्थिति तो उनके समान नहीं है। द्रव्य और पर्यायों के प्रदेश तो एक ही हैं। अत: इनमें भिन्नता मानना तो असंभव ही लगता है?
द्रव्य और पर्याय का क्षेत्र एक होते हुए भी
__ भाव भिन्नता तो विद्यमान है समाधान इस प्रकार है :- उपरोक्त कथन में इतनी तो सत्यता अवश्य है कि द्रव्य और पर्याय का द्रव्य एक ही है तथा क्षेत्र भी एक ही है, इतना ही नहीं, पर्याय के परिणमन काल में ही द्रव्य ध्रुवरूप विद्यमान भी रहता है, अत: काल भी एक ही है। इतना सब कुछ होने पर भी, द्रव्य
और पर्याय की भाव भिन्नता अवश्य रहती है। जैसे द्रव्य नित्य स्वभावी है लेकिन पर्याय अनित्य स्वभावी है। अत: भावों की अपेक्षा दोनों के भाव अत्यन्त विपरीत हैं, और यह विपरीतता हर समय के परिणमन में चालू ही रहती है, फिर भी द्रव्य, क्षेत्र काल तो एक ही रहते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि द्रव्य और पर्याय के भाव भिन्नता होते हुए भी एक ही क्षेत्र में रहने में कोई विरोध नहीं है, अर्थात् असंभव नहीं है। आत्मा से अन्य द्रव्यों की भिन्नता के समान, द्रव्य और पर्याय में भिन्नता नहीं है, लेकिन भिन्नता तो अवश्य है, उसे किसी भी अपेक्षा स्वीकार तो करनी ही पड़ेगी। अपने से अन्य द्रव्यों के समान, पर्याय के प्रदेश, क्षेत्र अपेक्षा भिन्न करना संभव नहीं हो सके फिर भी प्रदेशों के एक ही क्षेत्र में रहते हुए भी भिन्न समझा तो जा ही सकता है। जैसे एक वयस्क बालिका अपने पिता के घर को द्रव्य, क्षेत्र, कालभाव सभी प्रकार से अभी तक, अपना ही घर मानती है, कहती है तथा उसी प्रकार का व्यवहार भी करती
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