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( सुखी होने का उपाय भाग - ५
उत्पाद-व्ययरूपी अनित्यता को गौण करके, उसके पीछे जो नित्य स्वभाव छुपा हुआ है, उसको श्रद्धा में तो व्यक्त कर ही सकता है, अर्थात् अपने आपका अस्तित्व, नित्यस्वभावी द्रव्यरूप तो मान ही सकता है। ऐसी मान्यता के फलस्वरूप, हर समय अनित्य का वेदन विद्यमान रहते हुए भी, उसकी उपेक्षा कर, अपने आपको नित्य स्वभावी मानकर, पर्याय के हर समय के उत्पाद-व्यय में, अपना जीवन-मरण नहीं मानता हुआ, अपने अविनाशी स्वभाव में, अहंपने की श्रद्धा के कारण आकुलित नहीं होकर शांति का वेदन तो कर ही सकता है। द्रव्य स्वभाव एवं पर्याय स्वभाव की यथार्थ समझ द्वारा, उपरोक्त सबसे महान उपलब्धि प्राप्त होती है।
भाव-भिन्नता की समझ ही भेद ज्ञान का आधार है
भेद ज्ञान का मूल उद्देश्य है कि दो मिली हुई वस्तुओं में, भेद समझकर, किसी एक में स्वपने का निर्णय करना। वर्तमान में हमारा प्रयोजन तो मात्र हमारे आत्मा को समझना है। वस्तुपने से तो पर्याय से भिन्नता हो नहीं सकती लेकिन एक ही पदार्थ में अत्यंत विपरीत स्वभाव वाला दोपना तो विद्यमान है ही। द्रव्य तो नित्य स्वभावी है और पर्याय अनित्य स्वभावी है और दोनों के स्वभाव एक दूसरे से अत्यन्त विपरीत स्वभावी हैं । जगत के सभी द्रव्यों का एक अद्भुत आश्चर्यकारी स्वभाव है कि प्रदेश अभिन्न होने पर भी एक ही पदार्थ में एक ही समय में विपरीत भाव निरंतर विद्यमान रहते हैं। ___ आत्मार्थी की यह भारी कठिनाई है कि वह विपरीत स्वभावों वाले पदार्थ में मेरापना किसमें माने व कैसे माने? विपरीत स्वभाव वाली दो स्थितियों में से, मैं तो एक प्रकार की स्थिति वाला ही तो हो सकता हूँ? अत: मुझे तो मेरा अस्तित्व निश्चय करने के लिए मेरे में विपरीत स्वभाव विद्यमान होते हुए भी, उनमें से किसी एक स्वभाव में तो मेरा अस्तित्व मानना ही पड़ेगा ? इसलिए मुझे तो दोनों का स्वरूप समझकर, दोनों में भेदज्ञान करना अनिवार्य हो जाता है।
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