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________________ ( सुखी होने का उपाय भाग - ५ इस भाग का विषय भी मूलत: समयसार की गाथा १४४ की टीका पर आधारित है । वास्तव में उपरोक्त टीका, प्रारंभिक आत्मार्थी का प्रारंभ से लेकर, आत्मानुभव प्राप्त करने तक की सम्पूर्ण प्रक्रिया का सांगोपांग विवेचन करने वाली है । प्रातः स्मरणीय पूज्य श्रीकानजीस्वामी ने अध्यात्म संदेश के नाम से प्रकाशित प्रवचनों में उपरोक्त टीका के संबंध में निम्नप्रकार महिमा की है : ३८ ) - " प्रथम श्रुतज्ञान के अवलम्बन से ज्ञानस्वभावी आत्मा का निश्चय करके ; यहाँ तक तो सविकल्प दशा है बाद में आत्मा की प्रगट प्रसिद्धि करने के लिए अर्थात् अनुभव के लिए परपदार्थ की प्रसिद्धि की कारण जो इन्द्रिय व मन द्वारा प्रवर्तती हुई बुद्धियाँ - इनको मर्यादा में लाकर मतिज्ञान तत्त्व को आत्मसन्मुख किया, तथा अनेक प्रकार के नयपक्ष के विकल्पों द्वारा आकुलता की उत्पादक ऐसी श्रुतज्ञान की बुद्धियों को भी मर्यादा में लाकर श्रुतज्ञानतत्त्व को भी आत्मसम्मुख किया, इस रीति से मति श्रुतज्ञान को पर की ओर से समेटकर आत्मस्वभाव में लाने से तत्क्षण ही अत्यन्त विकल्परहित होकर, यह आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को अनुभवता है; इसमें आत्मा सम्यक्पने से दिखता है व जानने में आता है, अतः यही सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान है। इस अनुभव को " पक्षातिक्रान्त" कहा है, क्योंकि इसमें नय पक्ष के कोई विकल्प नहीं रहते । ऐसा अनुभव करे, तब ही जीव को सम्यग्दर्शन होता है। ऐसा अनुभव कैसे हो ? यह पहले ही दिखाया है। प्रथम श्रुतज्ञान के अवलम्बन से ज्ञानस्वभाव आत्मा का निश्चय करके ऐसे यथार्थ निश्चय के बल से विकल्प टूटकर साक्षात् अनुभव होता है। अंतर में आत्मस्वरूप का सच्चा निर्णय होना, यही मुख्य वस्तु है; इसकी तो महत्ता जगत को नहीं दिखती और बाह्य क्रिया की महत्ता दिखती है, परन्तु वह तो उपाय नहीं है । अन्तर में आत्मा के स्वभाव का अच्छी तरह निर्णय करके इसके अन्तर्मन्थन से स्वानुभव होता है, यही सम्यग्दर्शन का उपाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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