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________________ विषय प्रवेश ) ( ३७ पहिचानकर उनकी आत्मा वर्तमान में जैसी परिणम रही है, वैसे का वैसा ही मेरा त्रिकाली भाव भी वर्तमान में ही नहीं, त्रिकाल में भी है । आदि-आदि द्वारा अपने ज्ञायकस्वभाव की महिमा लाकर उसमें अहंपना स्थापित करना चाहिए। मेरा आत्मा ज्ञानस्वभावी अर्थात् ज्ञायक अकर्ता स्वभावी है। ऐसा उपरोक्त प्रकारों से निर्णय हो जाने पर भी, एक प्रश्न खड़ा होता है कि अनेक प्रकार के ज्ञेयों की जानकारी तो ज्ञान में आती ही है, उनके जानने से राग भी उत्पन्न हो जाता है, और ज्ञान का स्वभाव जानने का है, इसलिए उसका जानना तो रुकेगा नहीं और जानने पर राग हो जावेगा, तो आत्मा वीतरागी कैसे हो सकेगा ? उक्त समस्या के समाधान हेतु आचार्य श्री ने प्रवचनसार में, ज्ञान- ज्ञेय के विभागीकरण की पद्धति का विस्तार से वर्णन कर, स्पष्ट किया है कि ज्ञेयों के जानने से ही राग उत्पन्न नहीं होता । ऐसा हो तो केवली भगवान को भी राग हो जाना चाहिए था । इससे सिद्ध होता है कि जानना राग की उत्पत्ति का कारण नहीं है। अज्ञानी आत्मा की जानने की दूषित पद्धति ही राग की उत्पत्ति का कारण है जाननक्रिया की वास्तविक स्थिति-पद्धति का ज्ञान होने से, ज्ञेय मात्र के प्रति उपेक्षा वृत्ति जाग्रत होना चाहिए। पर के प्रति उपेक्षाबुद्धि खड़ी होकर रुचि का बेग स्वतत्व की ओर हो जाता है, ऐसा हो जाने से आत्मा का उपयोग भी ज्ञायकभाव के सन्मुख हो जाता है, उससे ज्ञान में ज्ञेय का विभागीकरण पूर्वक ज्ञाता - ज्ञान और ज्ञेय का भेद भी अस्त हो जाता है, और आत्मानुभव प्राप्त हो जाता है / I उपरोक्त समस्त प्रकरणों का विस्तार से स्पष्टीकरण इस पुस्तक श्रृंखला के भाग १ से ४ में किया जा चुका है और उसी का संक्षिप्त वर्णन भाग-५ के प्रारंभ में दिये गये " सुखी होने का उपाय के चारों भागों के विषय का परिचय” में दिया गया है। पाठकों को अवश्य पढ़ लेना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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