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(सुखी होने का उपाय भाग - ५
विषय-प्रवेश प्रस्तुत भाग-५ का विषय है “यथार्थ निर्णयपूर्वक ज्ञातृतत्त्व का पर्यायमात्र से भेदज्ञान।"
आत्मार्थी जीव को आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम विश्व का अर्थात् छहों द्रव्यों का यथार्थ स्वरूप जानकर ऐसी श्रद्धा जाग्रत करना चाहिए की सभी द्रव्य उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् हैं। सभी अपनी स्वतंत्र सत्ता रखकर, अपने-अपने परिणमनों को, अपने-आप में रहते हुए बिना किसी की मदद अथवा हस्तक्षेप के निर्बाध रूप से करते रहते हैं। उनमें से ही, मैं भी एक जीव नाम का द्रव्य हूँ, मैं भी अपने-आप में रहते हुए बिना किसी की मदद अथवा रोक-टोक के निर्बाध गति से अपने-अपने परिणमनों को करता रहता हूँ। अत: मैं न तो किसी द्रव्य के किसी भी परिणमन का कर्ता हूँ, न भोक्ता हूँ, न मेरे परिणमनों का द्रव्य कर्म आदि कोई भी अन्य द्रव्य कर्ता हो सकता है, और न भोक्ता भी हो सकता है। सब अपने-अपने परिणमनों के करने वाले हैं।
ऐसी श्रद्धा हो जाने पर, फिर आत्मार्थी को निर्णय करना चाहिए कि मेरा स्वरूप क्या है? इस पर चिन्तन-मनन करना चाहिए। सत्समागम पूर्वक आगम का अभ्यास करना चाहिए। आत्मा का असाधारण लक्षण ज्ञान है। उक्त लक्षण के द्वारा अनेक भावों में छुपे हुए आत्मा को ज्ञान लक्षण के माध्यम से अलग पहिचान लेना चाहिए। उस निर्णय करने में सहायक द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिकनयों को एवं निश्चय-व्यावहारनयों के यथार्थ स्वरूप को समझकर, उनके द्वारा अपने आत्मा का यथार्थ स्वरूप समझना चाहिए कि आत्मा तो एक ज्ञानस्वभावी ही है, अन्य कोई स्वभावी है ही नहीं।
जो ज्ञायकमात्र अपना यथार्थ स्वरूप है, वह उपरोक्त अध्ययनों एवं सत्समागम के द्वारा समझना चाहिए। प्रवचनसार के गाथा ८० के अनुसार भगवान अरहंत की आत्मा के द्रव्य-गुण-पर्याय का स्वरूप
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