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________________ विषय परिचय ) ( ३५ यह है कि आत्मा में तो स्व एवं पर दोनों का प्रकाशन एक ही साथ विद्यमान रहता है, लेकिन छद्मस्थ प्राणियों का उपयोग एकसमय दोनों में से एक को ही जान पाता है, एकसाथ दोनों को नहीं जान सकता । अतः यह निर्णय करने की जिम्मेदारी तो आत्मा पर ही आ जाती है, कि अपने उपयोग को किसके जानने में केन्द्रित करना । रागादि की उत्पत्ति के कारणों पर विचार करें तो अनुभव में आता है कि मेरा उपयोग परज्ञेयों के प्रति सन्मुख होता है तो रागादि उत्पन्न हो जाते हैं। स्व की सन्मुखता हो तो रागादि का उत्पादन नहीं होकर, वीतरागी निराकुलता का उत्पादन होने लगता है। इन सबसे स्पष्ट है कि आत्मा को अपने उपयोग को, स्वज्ञेय में लगाना ही कार्यकारी है, पर की ओर जावेगा तो आत्मा के लिए हानि ही करने वाला होगा । अब समस्या यह रह जाती है कि वे कौन से उपाय हैं, जिनको अपनाने से उपयोग पर की ओर से हटकर स्व की ओर सन्मुख हो जावे । यही वास्तविक मोक्षमार्ग होगा और आत्मार्थी का यही एकमात्र सर्वोत्कृष्ट कर्तव्य है । उपरोक्त भूमिका प्राप्त जीव की अंतरंग परिणति की उस समय कैसी स्थिति होती है अर्थात् निर्विकल्प स्वानुभूति प्रगट होने के काल में अन्तर्परिणति किस प्रकार वर्तती है, उसका विशद विवेचन प्रातः स्मरणीय पूज्य श्रीकानजीस्वामी ने पंडित टोडरमलजी की रहस्यपूर्ण चिट्ठी पर प्रवचन किये हैं जो कि अध्यात्म संदेश के नाम से प्रकाशित हो चुके हैं उनसे प्राप्त कर लेना चाहिए । इसप्रकार सुखी होने का उपाय पुस्तकमाला के पाँचों भागों के विषयों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है । जिज्ञासु बंधुओं से निवेदन है कि वे उक्त पुस्तक के द्वारा यथार्थ मार्ग प्राप्तकर आत्मानुभूति प्राप्तकर अपने जीवन को कृतकृत्य करें । *** Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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