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________________ ३४) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ इन दोनों के फलस्वरूप इस आत्मा की श्रद्धा में, आकर्षण का केन्द्र, एकमात्र त्रिकाली ज्ञायकभाव ऐसा जमजावे, कि उपयोग उसही का शरण लेने के लिए अत्यन्त उत्साहित हो जावे । जहाज पर बैठे पक्षी की भाँति इसको जगत में कोई शरणभूत ही नहीं लगे, एकमात्र ज्ञायकभाव ही शरणभूत लगे - ऐसी स्थिति अंदर में जाग्रत होते ही, इस आत्मा का उपयोग अपनी आत्मा को साक्षात्कार कर लेगा। इसप्रकार की परिणति आत्मा की उत्पन्न हो - ऐसी चर्चा भाग-५ में करने का प्रयास किया गया। आगामी भागों का विषय आत्मार्थी उपरोक्त प्रकार से मोक्षमार्ग के यथार्थ स्वरूप को संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय रहित समझकर, अपने आत्मस्वरूप को प्राप्त करने के लिए निशंकतापूर्वक कमर कसकर तैयार हो जाता है। उस आत्मार्थी को अंदर में अर्थात् श्रद्धा में कर्तृत्वबुद्धि का अभिप्राय समाप्त होगया होता है। “जगत में किसी भी पदार्थ का तो आत्मा कुछ कर ही नहीं सकता, लेकिन अपने स्वयं के परिणामों में भी कुछ नहीं कर सकता - ऐसी श्रद्धा जाग्रत होने पर, पर्याय के प्रति उपेक्षा बुद्धि प्रगट हो गई है। फलतः रुचि का वेग सब तरफ से सिमट कर, एकमात्र ज्ञायक स्वरूपी निज आत्मतत्त्व के सन्मुख हो जाना चाहता है । इसप्रकार मार्ग समझ में तो आ जाता है, लेकिन विधेयात्मक पद्धति प्राप्त हुए बिना वह उपयोग आत्मा में प्रवेश तो नहीं करता । अत: प्रायोगिक पद्धति की आवश्यकता अनुभव करते हुए, आत्मार्थी ऐसे मार्ग को ढूंढने का प्रयास करता है। आत्मा ज्ञानस्वभावी है। स्वभाव तो अमर्यादित ही होता है अत: आत्मा सबको जाननेवाला, सर्वज्ञ स्वभावी ही है। ज्ञान का स्वभाव भी स्व-पर प्रकाशक है। अत: वह स्व एवं पर, सब को ही जानने के स्वभाव वाला है। उस ज्ञान की जानन क्रिया, उपयोग के माध्यम से कार्य करती है। वह जानन क्रिया किसी समय भी जानने का कार्य तो बंद कर ही नहीं सकती। अत: यह आत्मा निगोद में हो अथवा सिद्ध दशा को प्राप्त हो जावे, जानने का कार्य तो निरंतर करती ही रहती है। कठिनता तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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