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विषय परिचय )
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करेगा, तब तक आत्मा का अनुभव कौन करेगा? अतः अनादिकाल से पर अर्थात् त्रिकाली ज्ञायकभाव से भिन्न, चाहे अपनी निर्मल अथवा विकारी पर्याय ही क्यों न हो, अथवा अनेक गुणों के भेद ही क्यों न हों ? कहीं भी किंचितमात्र भी हितबुद्धि होगी तो उपयोग, आत्मसन्मुख नहीं हो पावेगा; उस ही में रुका रहेगा । अतः रुचि की जितनी उग्रता, आत्मा में उपयोग अभेद करने के लिये जब उत्पन्न होगी तभी उपयोग आत्मा में एकत्व अर्थात् तन्मय हो सकेगा । उसही दशा का नाम आत्मानुभूति है । ऐसी दशा कैसे प्राप्त हो उस संबंध की चर्चा भी भाग - ५ में की जा रही है ।
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परज्ञेय मात्र से संबंध तोड़ने का उपाय जाननक्रिया का वास्तविक स्वरूप समझना हैं । ज्ञेयमात्र से उपेक्षित बुद्धि उत्पन्न कर, त्रिकाली ज्ञायकभाव को रुचि का केन्द्र बिन्दु बनाने से ही, उपयोग स्वलक्ष्यी हो सकेगा । वास्तव में ज्ञान की पर्याय में परसंबंधी ज्ञेयाकार, ज्ञानपर्याय की योग्यतानुसार स्वयं के कारण से बनते हैं उसके प्रति भी उपेक्षित बुद्धि उत्पन्न कर, एकमात्र त्रिकाली ज्ञायकभाव, रुचि का केन्द्र बिन्दु बन जावे तब उपयोग त्रिकाली में जाकर अभेद होगा। इसही दशा का नाम पर्यायार्थिकनय के विषय को गौणकर, द्रव्यार्थिकनय के विषय को मुख्य करना है और उस ही में अपनापन स्थापन करना ही द्रव्यदृष्टि है । यह ज्ञानीजीव जगत् के सभी पदार्थों को एवं अपने आपको भी द्रव्य की दृष्टि से देखता है । अतः असमानता का अभाव हो जाता है फलतः रागादि की उत्पत्ति नहीं होती ।
इसप्रकार भाग-५ में समयसार के व अन्य आगम आधारों के एवं अनेक तर्कों के माध्यम से अनित्य स्वभावी पर्यायों से एवं गुणभेदों के विकल्पों से, अभेद त्रिकाली ज्ञायकभाव को भिन्न समझकर अपनी श्रद्धा में, त्रिकाली ज्ञायकभाव में अहंपने की अपनेपने की श्रद्धा उत्पन्न कराने का प्रयास किया जावेगा। साथ ही उस त्रिकाली ज्ञायकभाव की अद्भुत अचिंत्य महिमा का ज्ञान एवं श्रद्धान कराकर रुचि का केन्द्र बिन्दु, परज्ञेयों के स्थान पर मात्र त्रिकाली ज्ञायकभाव बने- ऐसा प्रयास किया जावेगा ।
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