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________________ ३२) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ पर्याय से द्रव्य अलग तो हो सकता नहीं, अत: इसका समाधान भी भाग-५ में प्राप्त होगा। आत्मा में जब विकार है ही नहीं तो पर्याय में विकार कैसे हो गया एवं कहाँ से आ गया, आदि विषयों पर भी चर्चा उक्त भाग में होगी। विकार होने के समय द्रव्यकर्म भी उस ही जाति का व उतने ही अनुभाग का उदय होता है इसकारण उस पर्याय को नैमित्तिक भी कहा जाता है, मात्र ऐसा होने के कारण ही उस पर्याय को कर्मकृत तो नहीं कहा जाना चाहिए, लेकिन समयसार में उस ही पर्याय को कर्मकृत कहा है ? जबकि द्रव्यकर्म पुद्गलद्रव्य की पर्याय होने से, उसका आत्मा में कुछ भी कार्य हो ही नहीं सकता ? इस विषय पर भी भाग-५ में चर्चा की जा रही है। आत्मा की ज्ञानपर्याय जब स्वाभाविक पर्याय को ज्ञेय बनाती है तो उसको आत्मद्रव्य भी ज्ञेय बन जाता है क्योंकि उसका स्वभाव से अभेद है और वही ज्ञान पर्याय जब विकारी पर्याय को ज्ञेय बनाती है तो उसका ज्ञेय द्रव्यकर्म कैसे बन जाता है आदि अनेक अपेक्षाओं के द्वारा त्रिकाली ज्ञायक भाव से पर्यायों का व गुण भेदों का भेदज्ञान कैसे हो सकता है, इस पर भी विस्तार से चर्चा इस पांचवें भाग में की जा रही अस्तिपक्ष के द्वारा आत्मा की महिमा का विश्वास लाने के लिये उसकी स्वयं की शक्ति सामर्थ्य का विस्तार से विवेचन इस पांचवें भाग में किया जावेगा। यथार्थत: हमारा उपयोग तो रुचि का अनुकरण करने वाला होता है। उपयोग अर्थात् जाननक्रिया जिस ओर की रुचि होती है, स्वयं उस ही ओर उपयोग कार्यशील हो जाता है। कोई क्षण भी ऐसा नहीं होता, जब उपयोग कार्य करे बिना रह जावे। इसलिये जब तक आत्मा का यथार्थ स्वरूप समझा जाकर, रुचि का केन्द्रबिन्दु, मात्र एक त्रिकाली ज्ञायकभाव नहीं हो जावेगा, तब तक उपयोग स्वलक्ष्यी नहीं हो सकेगा। जब तक उपयोग पर से लक्ष्य हटाकर, स्व की सन्मुखता नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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