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विषय परिचय )
समयसार की शैली मुख्यता से जीवतत्व त्रिकाली ध्रुवतत्व को, गुणपर्यायों से विशेषतः विभावगुण पर्यायों से भिन्न कैसे किया जावे, इस ही विधि का ज्ञान कराने वाली है।
वास्तव में विचारा जावे तो नित्य एवं अनित्य पक्ष दोनों एक ही समय आत्मा में विद्यमान हैं व रहेंगे, उनको अन्य द्रव्यों की भाँति आत्मा में से निकालकर अलग नहीं किया जा सकता । अन्य द्रव्य तो भिन्न हैं ही अत: उनको तो एक मान लेना स्थूल भूल थी । वह भूल जिसने की है उसको अपनी भूल छोड़ देना कठिन कैसे हो सकता है ? लेकिन आत्मा की ये पर्यायें भी आत्मा में ही तो हैं, अतः इनको निकालकर फेंक देने का प्रयास निरर्थक ही होगा। लेकिन मेरे नित्य भाव से विपरीत, इनका अनित्य स्वभाव होने से, वे आत्मा में भले ही बनी रहें लेकिन उनसे ममत्व तो तोड़ा ही जा सकता है और यह कार्य कठिन भी नहीं है । अत: इन अनित्य भावों से ममत्व तो मान्यता में तोड़ा ही जा सकता है । ममत्व तोड़ने के लिए वस्तु में कुछ भी छेड़छाड़ करना आवश्यक होता ही नहीं है । जैसे अपने मित्र के प्रति कोई भी कारण बन जाने से मित्रता छोड़ने के लिए क्या मित्र में कुछ परिवर्तन करना पड़ेगा ? कुछ नहीं करना होगा मात्र अपनी मान्यता में अर्थात् श्रद्धा में मेरेपने की मान्यता छोड़ देना है, वस्तु में कुछ भी नहीं करना पड़ता । । पर्यायों से अपनापन तोड़ने का मूल उपाय नयज्ञान है । उस नयज्ञान के प्रयोग द्वारा इन विकारी, निर्विकारी, अनित्य भावों अर्थात् पर्यायों से भेदज्ञान करने के उपाय की विस्तार से चर्चा भाग - ५ में की जा रही है ।
इसीप्रकार जब द्रव्य और पर्याय दोनों हर समय एकसाथ ही द्रव्य में रहते हैं तब द्रव्य से पर्याय को भिन्न करना चाहें तो भी भिन्न नहीं की जा सकती तब उस द्रव्य की पर्याय को पर मानकर, अपने से भिन्न कैसे समझा जावे ? इस विषय पर भी चर्चा भाग-५ में की जा रही है।
जीव की पर्याय जब विकारी रूप होकर परिणम ही रही है, तब उसी समय उसके स्वामी को विकार रहित कैसे माना जा सकता है, क्योंकि
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