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________________ विषय परिचय) (२७ अवश्यंभावी है। इसीलिए अगर यह आत्मा ज्ञेयों का यथार्थ स्वरूप समझ ले तो ज्ञेयों का आकर्षण समाप्त हो जावे । इसलिये प्रवचनसार के ज्ञेयतत्त्व प्रज्ञापन अधिकार के आधार पर भाग-४ में इस विषय की विस्तार से चर्चा की है। ___ ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन के समापन के अंतिम श्लोक में दोनों अधिकारों की संधि करते हुए आचार्यश्री ने कहा है कि - ___आत्मा रूपी अधिकरण में रहने वाले अर्थात् आत्मा के आश्रित रहने वाले ज्ञानतत्त्व का इसप्रकार यथार्थतया निश्चय करके उसकी सिद्धि के लिए ( केवलज्ञान प्रगट करने के लिए) प्रशम के लक्ष से, उपशम प्राप्त करने के हेतु से, ज्ञेयतत्त्व का जानने का इच्छुक जीव सर्व पदार्थों को द्रव्य-गुण-पर्याय सहित जानता है, जिससे कभी मोहांकुर की किंचित्मात्र भी उत्पत्ति नहीं होती। ___ उक्त श्लोक से यह भी समझ में आता है कि मोक्षमार्ग प्राप्त करने के लिए ज्ञेयतत्त्व का स्वरूप एवं उनको जानने वाली जाननक्रिया, दोनों का यथार्थ स्वरूप समझना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस विषय पर भी चर्चा भाग-४ में की गई है। अनादिकाल से अज्ञानी जीव को अपने शरीरादि नोकर्म असमान जातीय द्रव्य पर्याय ही मुख्यत: ज्ञान का ज्ञेय बना हुआ है। इस ही में अनादि काल से एकत्वबुद्धि होने से उसही को “मैं” के रूप में मानता हुआ एवं उसही की रक्षा आदि करने में व्यस्त रहता चला आ रहा है ।शरीर से संबंधी जो भी हों उन सबको भी अपनेपने की मान्यता सहित ज्ञेय बनाता चला आ रहा है। उस असमानजातीय द्रव्यपर्याय की वास्तविक स्थिति क्या है अर्थात् वास्तविक ज्ञेय क्या है तथा जानने में क्या व कैसे भूल होती है - इस विषय की विस्तार से चर्चा भाग-४ में की गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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