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( सुखी होने का उपाय भाग - ५
ज्ञेयतत्त्व प्रज्ञापन की गाथा ९३ की टीका में स्पष्ट किया गया है कि द्रव्य-गुण- पर्याय मय सम्पूर्ण पदार्थ वास्तव में ज्ञेय है, उनमें से अकेली पर्याय का ज्ञेय बनाने वाला पर्यायमूढ़ अर्थात् मिथ्यात्वी अज्ञानी है । इस ही टीका में पर्याय के मुख्य भेद दो बताये हैं, एक तो द्रव्यपर्याय एवं दूसरा गुणपर्याय। उनमें भी दो-दो भेद किए हैं, स्वभावद्रव्य पर्याय एवं विभावद्रव्यपर्याय । इसीप्रकार गुणपर्याय के भी स्वभाव-विभाव दो भेद किये हैं। इनमें से विभाव द्रव्य पर्याय तो जीव और पुद्गल की मिली हुई असमानजातीय द्रव्यपर्याय को बताया है एवं स्व-पर के हेतु से प्रवर्तमान पूर्व उत्तर पर्याय में तारतम्यता को विभाव गुण पर्याय बताया है । इन पर्यायों को ज्ञेय बनाने वाले को पर्यायमूढ़ तथा परमसमय कहा है। इस प्रकार सम्पूर्ण पदार्थ को ज्ञेय नहीं बनाकर इन पर्यायों को ज्ञेय बनाता है, उसको आचार्य देव मिथ्यादृष्टि कहते हैं। पर्यायों को अपने ज्ञान का ज्ञेय नहीं बनाकर जो जीव पदार्थ को ज्ञेय बनावेगा उसको मोह की उत्पत्ति नहीं होगी, ऐसा उपरोक्त गाथा का तात्पर्य निकलता है।
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इसका आधार भी यह है कि प्रमेयत्वगुण अर्थात् ज्ञेय बनने की योग्यता वाला गुण तो द्रव्य में है, अकेली पर्याय में नहीं । द्रव्यगत होने से पर्याय द्रव्य का ही अंग है इसकारण पर्याय भी ज्ञेय बन सकेगी लेकिन प्रमेयत्वगुण पूरे पदार्थ में होने से, द्रव्य को छोड़कर अकेली पर्याय कैसे ज्ञेय बन सकती है । अतः अकेली पर्याय को ज्ञेय बनाने वाला मिथ्यादृष्टी ही है ।
उक्त दोनों पर्यायों में से प्रवचनसार का मुख्य केन्द्रबिन्दु है, असमानजातीय द्रव्यपर्याय का यथार्थ स्वरूप समझाना, पर्याय को ज्ञेय बनाना छोड़कर, पदार्थ को ज्ञेय बनाने की विधि समझाना है। इसप्रकार मोह उत्पत्ति के कारणों के अभाव करने का महत्वपूर्ण प्रयास किया है । इन सभी विषयों पर विस्तार से चर्चा भाग-४ में की गई है।
यहाँ प्रश्न होता है कि प्रवचनसार के विवेचन में भेदज्ञान के लिये असमानजातीय द्रव्य पर्याय को मुख्य क्यों किया ?
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