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________________ २६ ) ( सुखी होने का उपाय भाग - ५ भी जानने की क्रिया ही तो करता है? तब हमको विकार क्यों हो जाता है ? समाधान :- यह बात तो ध्रुव सत्य है कि ज्ञान आत्मा का स्वभाव है अत: वह राग का उत्पादक नहीं हो सकता । उसकी जाननक्रिया का परिणमन स्व को जानने रूप और पर को जानने रूप दो रूप में होता है। ज्ञान का स्वभाव स्व-पर प्रकाशक होने से उसकी जाननक्रिया भी स्व-पर को जानने वाली है। दूसरी ओर छद्मस्थज्ञान की ऐसी निर्बलता है कि स्व और पर दोनों को जानने का स्वभाव होने पर भी दोनों को एकसाथ जान नहीं सकता । अतः वह जाननक्रिया जब स्व को जानेगी तब पर रह जावेगा एवं जब पर को जानेगी तो स्व रह जाता है । अतः वह एक समय एक को ही जान सकती है। जानन क्रिया का कार्य करे, पर की उपेक्षा करे। लेकिन अगर वह जाननक्रिया अपने स्वामी की उपेक्षा करके पर को जानने में उपयुक्त हो तो यह तो उसका विपरीत कार्य है । जिसप्रकार कोई पत्नी अपने पति को छोड़कर अन्य से प्रेम करे तो वह व्यभिचारिणी ही मानी जाती है, उसीप्रकार जाननक्रिया अपने स्वामी को जाने नहीं और पर को जानने का कार्य करे तो निश्चित ही ऐसा माना जाना चाहिए कि उसको अपने स्वामी की अपेक्षा परज्ञेयों से प्रेम ज्यादा है । इसीलिए वह स्व को छोड़कर परज्ञेयों को जानने का कार्य करती है । फलत: आकुलतारूपी दंड की पात्र होती है। तात्पर्य यह है कि आत्मा की जानन क्रिया विकार की उत्पादक नहीं है वरन् परज्ञेयों के प्रति आकर्षण ही उसके विकार का उत्पादक है। है ? प्रश्न होता है परज्ञेयों के प्रति आकर्षण होने का कारण क्या XXX · समाधान :- अनादिकाल से इस जीव ने स्व और पर का विवेक किया ही नहीं है। जो यथार्थतः पर हैं उनको स्व मानता चला आ रहा है, और स्व को पहिचाना ही नहीं है। फलतः पर का आकर्षण बने रहना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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