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विषय परिचय )
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निराकुलतारूपी परम आनन्द का अनुभव करता हुआ सादि अनन्त काल तक सुखी बना रहता है। जब वही आत्मा अपने स्व प्रकाशक ज्ञान के विषय को भूलकर, अपनी पर्याय में विद्यमान परप्रकाशक ज्ञान के विषयों में एकत्व करता है तो, उस ज्ञान को, इन्द्रियों की पराधीनतापूर्वक कार्य करना पड़ता है तथा उनमें सुख बुद्धि होने से एवं जानने की उत्कंठा एवं ज्ञेयों की अनेकता होने से, शीघ्रातिशीघ्र ज्ञप्तिपरिवर्तन करना पड़ता है । ज्ञप्ति परिवर्तन ही आकुलता है, अतः अनन्तकाल तक दुःखी बना रहता है
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ज्ञान के स्व-पर प्रकाशक स्वभाव का तो अभाव हो सकता नहीं, अतः आत्मा को स्व तथा पर दोनों का ज्ञान तो अवश्य होगा ही । अज्ञानी आत्मा परज्ञेयों में प्रेम तथा सुखबुद्धि आदि होने से, स्वप्रकाशक ज्ञान के विषय का तिरस्कार करके, परप्रकाशक ज्ञान के विषयों की तरफ झपट्टे मारता है । फलस्वरूप दुःख का ही उत्पादन करता रहता है । इसके विपरीत ज्ञानी का प्रेम स्व-विषय में होने से, स्व में एकत्व करता है, फलत: वह निराकुलतारूपी परमानंद का उपभोक्ता हो जाता है। इन विषयों की चर्चा भी प्रवचनसार के ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन के आधार पर भाग-४ में की गई है । अज्ञानी आत्मा उपरोक्त स्वरूप को समझकर, परलक्ष्य छोड़कर, स्वलक्ष्य किसप्रकार कर सकता है, उन उपायों की चर्चा भी प्रवचनसार गाथा ८० के आधार पर उक्त पुस्तक भाग-४ में की गई है । इसप्रकार आत्मा ज्ञानस्वभावी है इस पर विस्तार से चर्चा उपरोक्त पुस्तक में की गई है।
प्रश्न :- आत्मा का स्वभाव तो स्व अथवा पर कोई भी हो, सबको जानना मात्र है। जब आत्मा का स्वभाव जानना है, तो जानने की क्रिया, राग-विकार का उत्पादन कैसे कर सकती है ? अगर स्वाभाविक क्रिया ही राग का उत्पादन करे तो, हमेशा ही विकार व राग का उत्पादन होते रहना चाहिए । लेकिन ऐसा तो होता नहीं। इसका साक्षात् प्रमाण भगवान अरहंत की आत्मा है । इसलिए प्रश्न होता है कि हमारा आत्मा
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