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________________ देशनालब्धि की मर्यादा) (२५१ इसप्रकार देशनालब्धि की भूमिका में अपने आत्मस्वरूप का यथार्थ निर्णय हो जाना सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का महत्वपूर्ण उपाय है। अत: सिद्ध बनने का यथार्थ मार्ग का निर्णय कर लेना ही संक्षेप में देशनालब्धि का सार है। देशनालब्धि की मर्यादा एवं चरम दशा अनादिकाल से जिस आत्मा के स्वरूप के ज्ञान से भी अपरिचित था, उस आत्मा को प्राप्त करने की रुचि तो क्षयोपशम एवं विशुद्धलब्धि के काल में ही प्रगट हो जाती है । लेकिन उसे स्वरूप की अजानकारी एवं उसके प्राप्त करने के मार्ग की भी अजानकारी होने से उस रुचि का ही अभाव हो जाता है। अत: विशुद्धलब्धि द्वारा प्राप्त अवसर को अमूल्य अवसर मानकर उसकी पूर्ति करने का जो प्रयास अर्थात् पुरुषार्थ है, उस ही को देशनालब्धि कहते हैं । देशनालब्धि के काल में जीव उस आत्मा के स्वरूप को, जिसको जानने की रुचि एवं जिज्ञासा खड़ी हुई है, उसका स्वरूप समझने का एवं उसको प्राप्त करने के उपायों को भी समझने की चेष्टा करता है। इसकी पूर्ति के लिये रुचिपूर्वक, अपने प्रयोजन को मुख्य रखकर, अपने प्रयोजन के अतिरिक्त अन्य आकर्षणों में नहीं अटकते हुए मात्र अपने आत्मा के स्वरूप को एवं उसके प्राप्त करने के मार्ग को समझने के लिए ही जिनवाणी का शरण लेकर वीतरागता उत्पादक शास्त्रों का अध्ययन करता है, सत्समागम करता है, साधर्मियों से चर्चा आदि करके किसी भी प्रकार से समझकर, अपने स्वयं के ज्ञान में, अनुमान द्वारा पक्का निर्णय करता है। उस निर्णय को अपने आदर्श ऐसे सिद्ध भगवान के स्वरूप से मिलान करता है। अंत में जब तक सिद्ध भगवान की आत्मा के समान अपनी आत्मा का स्वरूप समझ में नहीं आवे तब तक निरंतर समझने का पुरुषार्थ करके सिद्ध भगवान के समान ही अपने आत्मा के स्वरूप को निर्णय में लेता है तथा उस दशा को प्राप्त करने का मार्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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