________________
२५२ )
(सुखी होने का उपाय भाग - ५
I
भी समझकर निर्णय कर लेता है । उस का मार्ग भी, उसा स्वभाव का पोषक होना चाहिए इस मापदंड के आधार पर उस मार्ग की भी समीचीनता को भी स्पष्ट रूप से समझ लेता है । निष्कर्ष यह है कि देशनालब्धि काल में ही निर्णय इतना स्पष्ट एवं यथार्थ हो जाता है कि आत्मार्थी को उस संबंध में कोई प्रकार की समझ में अस्पष्टता नहीं रहती । अतः वह आत्मस्वरूप के संबंध में तथा उसे प्राप्त करने के मार्ग के संबंध में निःशंक हो जाता है । मात्र इतना ही कार्य शेष रह जाता है कि उपयोग में भी वही निर्णीत आत्मस्वरूप, प्रगट हो जावे । यहाँ तक देशनालब्धि की मर्यादा है और यही देशनालब्धि की चरम सीमा है । पू. श्रीकानजी स्वामी ने भी पं. टोडरमलजी की रहस्यपूर्ण चिट्ठी पर हुए प्रवचन अध्यात्म संदेश के पृ. ५४ पर कहा है कि ५ " पहले विचार दशा में ज्ञान ने जिस स्वरूप को लक्ष्य में लिया था, उसी स्वरूप में ज्ञान का उपयोग जुड़ गया, और बीच में से विकल्प निकल गया, अकेला ज्ञान रह गया तब अतीन्द्रिय अनुभूति हुई, परम आनन्द हुआ ।”
I
देशनालब्धि एवं प्रायोग्यलब्धि में अंतर
देशनालब्धि एवं प्रायेग्यलब्धि के पुरुषार्थ में मूलभूत मुख्य अंतर तो यह है कि देशनालब्धि के पुरुषार्थ का प्रारंभ, परलक्ष्यी इन्द्रियज्ञान से ही होता है और अंतिम सीमा तक भी वह उत्तरोत्तर सूक्ष्मता पूर्वक भी परलक्ष्यी इन्द्रिय ज्ञान ही बना रहता है। प्रायोग्यलब्धि में वही ज्ञान का उपयोग स्वलक्ष्य के ध्येय से ही प्रारम्भ होता है और परलक्ष्य को छोड़ते हुए स्वलक्ष्य की ओर अग्रसर होता हुआ बढ़ता जाता है । अंत में चरम सीमा पार करके अतीन्द्रियतापूर्वक करणलब्धि पार कर लेता है अर्थात् स्वलक्ष्यपूर्वक प्रारंभ होकर स्वलक्ष्य की पूर्णता को प्राप्त कर लेता है 1
I
इसलिये यह स्पष्ट है कि देशनालब्धि काल में आत्मा के स्वरूप को एवं उसे प्राप्त करने के मार्ग को मात्र समझा जा सकता है, प्राप्त नहीं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org