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________________ २४६ ) क्रियाओं में भी परिवर्तन अवश्यमेव होता ही होता है। इन सभी कारणों से सिद्ध होता है कि मन-वचन-काय की इन्द्रिय ज्ञानगम्य क्रियाओं द्वारा भी ज्ञानी आत्मा के ज्ञानी होने का अनुमान द्वारा निर्णय हो सकता है, लेकिन पहिचान करने वाले आत्मार्थी को पहिचान करने योग्य यथार्थ समझ होनी आवश्यक है। ( सुखी होने का उपाय भाग - ५ आत्मार्थी की समझ की यथार्थता को कैसे पहिचानें ? पहिचान करने वाला आत्मार्थी स्वयं इस योग्यता वाला हो, जिसको मोक्षमार्ग प्राप्त करने की यथार्थ प्यास जगी हो और उसने आगम के अभ्यास द्वारा देव- शास्त्र - गुरु का यथार्थ स्वरूप समझा हो । सच्चे देव अर्थात् अरहंत परमेष्ठी एवं सिद्ध परमेष्ठी भगवान मात्र ही यथार्थ आराध्य देव हैं। उनका विस्तार के साथ स्वरूप इसलिए समझा हो कि मुझे भी अर्थात् मेरी आत्मा को भी सिद्ध परमेष्ठी ही बनना है, मात्र यह ही मेरा लक्ष्य है एवं ध्येय है; इसीलिये वे मेरे आराध्य हैं। इस ही उद्देश्य से उनके स्वरूप को बहुत गंभीरता एवं रुचि के द्वारा, आगम को आधार बनाकर समझें । यथार्थ समझ के द्वारा इतनी स्पष्टता एवं दृढ़ता तो श्रद्धा में आ ही जानी चाहिए कि सिद्ध भगवान पूर्ण वीतरागी हैं एवं सर्वज्ञ हैं, सबको जानते हुए भी परम वीतरागी बने रहते हैं। पं. दौलतरामजी ने एक स्तुति के मंगलाचरण में कहा भी है कि : I सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानंद रसलीन । सो जिनेन्द्र जयवंत नित, अरिरज रहस विहीन ॥ इस आधार से दृढ़ निश्चय एवं विश्वास जाग्रत हो जावे । तत्पश्चात् इसके साथ सहज ही विश्वास जाग्रत हो जावेगा की मुझे सिद्ध भगवान बनने का मार्ग बतलाने वाली तो एक मात्र जिनवाणी ही है । अत: उसके प्रति श्रद्धा एवं रुचि तथा भक्ति सहज ही उछले बिना रह ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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