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देशनालब्धि की मर्यादा )
इससे यह सिद्ध हुआ कि जब आत्मा को आत्मानुभूति के द्वारा सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है अर्थात् मिथ्यात्व के और अनन्तानुबंधी अभावात्मक, संवर एवं निर्जरा रूपी निश्चय पवित्रता उत्पन्न होती हैं, उसी समय साथ ही मन-वचन-काय की आंतरिक एवं बाह्य दोनों क्रियाओं में भी आंशिक शुद्धता अवश्य होने ही लगती है। ऐसी ही निश्चय - व्यवहार की मैत्री अर्थात् निमित्तनैमित्तिक संबंध रूपी सुमेल है।
लेकिन व्यवहार क्रिया के साथ इसप्रकार का सुमेल नहीं है। जैसे नोकर्म रूपी बाहर का कोई प्रसंग क्रोध की उत्पत्ति के अनुकूल दिखने वाला बना हो, लेकिन उस प्रसंग के समय वह व्यक्ति क्रोध नहीं करे तो क्रोध होता हुआ नहीं देखा जाता। इसीप्रकार क्रोधरूपी द्रव्यकर्म का उदयकाल आ गया हो लेकिन उस समय उस व्यक्ति का उपयोग स्वाध्याय करने में अथवा अन्य किसी कार्य में उपयुक्त हो तो, उन द्रव्यकर्म रूपी वर्गणाओं की तो आत्मा के साथ रहने की स्थिति पूरी होजाने से वे प्रकृतियाँ तो अपनी स्थिति बढ़ा नहीं सकती, अत: वे आत्मा में फल दिये बिना ही व्यय हो जाती हैं । अतः नोकर्म की उपस्थिति के अनुसार ही द्रव्यकर्मों के उदय भी आत्मा को क्रोध उत्पन्न कराने में समर्थ नहीं हो सके। इस दृष्टान्त से यह स्पष्ट समझ में आ सकता है कि व्यवहार क्रियाओं के साथ, निश्चय क्रिया का अविनाभावी संबंध नहीं होता ।
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इसका शास्त्रीय प्रमाण भी है । आत्मानुभूति के साथ ही, अनंतानुबंधी कषाय का अभाव नियम से होगा ही होगा। जब अनंतानुबंधी का अभाव होता है तो उसी समय व्यक्त पर्याय में भी तदनुकूल चरणानुयोग द्वारा प्रतिपादित मन-वचन-काय की क्रियाओं में भी परिवर्तन अवश्य होगा ही ऐसा आगमकथित नियम है ।
उपरोक्त सभी आगम प्रमाणों एवं युक्तियों एवं अनुमान से सिद्ध होता है कि निश्चय पवित्रता के साथ- साथ ही मन-वचन-काय की
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