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________________ २४४) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ बताकर व्यवहार लक्षण कहा है। यहाँ पर निश्चय लक्षण और व्यवहार लक्षणों का अन्तर और कारण समझना भी आवश्यक प्रतीत होता है, वह इस प्रकार है। निश्चय लक्षण तो आत्मा में प्रगट होता है और व्यवहार लक्षण, मन-वचन-काय के योगों में अर्थात् जो आत्मा से भिन्न ऐसे पर हैं, उनसे प्रगट होता है, यह मूलभूत अंतर है। निश्चय लक्षण तो आत्माश्रित है और व्यवहार लक्षण तो पर द्रव्याश्रित है। अत: दोनों लक्षण भिन्न द्रव्यों के परिणमन होने से दोनों ही यथार्थ कैसे हो सकेगे। लेकिन दोनों का आपस में सहज स्वाभाविक निमित्त-नैमित्तिक संबंध होता है। उपरोक्त विषय में विशेष जानना हो तो स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा की गाथा संख्या ३११ से ३२९ तक का अध्ययन करके जानें। इसमें विशेषता यह है कि संसारी के आत्माश्रित उत्पन्न हुए निश्चय कार्य का तो व्यवहार के साथ निमित-नैमितिक संबंध अविनाभावी रूप से होगा ही होगा। ऐसा नहीं है कि निश्चय कार्य अकेला हो जावे और उस समय व्यवहार कार्य हो ही नहीं; अवश्यमेव होगा ही। लेकिन व्यवहार कार्य के साथ ऐसा नहीं है, क्योंकि व्यवहार परद्रव्याश्रित है। जैसे कि आत्मा की, पर्याय में जब क्रोध उत्पन्न होता है तो उसी समय भावक्रोध के अनुकूल ही द्रव्यकर्मों का उदय होता है, और उसी समय क्रोध उत्पन्न होने का कारण ऐसी कोई घटना भी “नोकर्म" के रूप में अवश्य होती है। इन तीनों स्थितियों का काल तो एक ही है, और कोई भी इनको जुटाने वाला भी नहीं होता। फिर भी जब-जब कोई भी नैमितिक कार्य होगा, उपरोक्त तीनों ही स्थितियाँ, बिना कोई प्रयास के हुए बिना रहती ही नहीं है। इन्हीं सब कारणों से यह स्पष्ट रूप से सिद्ध होता है कि जब-जब भी कोई कार्य सम्पन्न होगा सहज रूप से उपरोक्त सारी परिस्थितियाँ होती ही हैं। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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