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________________ देशनालब्धि की मर्यादा) (२४७ नहीं सकती। इसीप्रकार जो इस मार्ग में अर्थात् सिद्ध भगवान बनने के मार्ग में आगे बढ़ चुके हैं, जिसके अंतर व बाह्य जीवन में वीतरागता प्रकाशित हो रही हो। जिनके आत्मा के सामर्थ्य में इतनी क्षमता प्रगट हो गई हो, कि ज्ञान में ज्ञेय कैसे भी ज्ञात होते हुए स्वयं वीतरागी बने रहते हों। ऐसे आचार्य, उपाध्याय एवं साधुपरमेष्ठी ही एकमात्र मेरी श्रद्धा के पात्र होने से पूज्य एवं श्रद्धेय हैं। साधुपरमेष्ठी की अन्तर की वीतराग परिणति एवं बाह्य मन, वचन और काय की परिणति किसप्रकार की होती है, इसका विस्तार से वर्णन चरणानुयोग ग्रंथों से जानना चाहिए तथा संक्षेप से जानने के लिए लेखक की “णमोलोएसव्वसाहूणं” नामक पुस्तिका से जाना जा सकता है। इसप्रकार आत्मार्थी की बुद्धि-क्षमता इतनी परिपक्व हो जाती है कि वह ज्ञानी आत्मा की यथार्थता को पहिचान सकता है। कारण उसके मन संबंधित विचारों की अभिव्यक्ति वचनों द्वारा प्रकाशित हुए बिना नहीं रहती। प्रश्न :- वर्तमान काल में यथार्थ देव-शास्त्र-गुरु का समागम तो अत्यंत दुर्लभ है । अत: उनकी अनुपस्थिति में गृहस्थ अवस्था युक्त ज्ञानी को कैसे पहिचाना जावे? उत्तर :- सम्यग्दृष्टि आत्मा ही ज्ञानी होता है। वह दशा चतुर्थ गुणस्थान से प्रारंभ होकर, क्रमश: बढ़ती हुई आत्मशुद्धि अर्थात् वीतरागता का, जिनवाणी में ग्यारह प्रतिमाओं के माध्यम से कथन किया गया है। जिसका विस्तार से वर्णन चरणानुयोग के ग्रंथों में निबद्ध है। संक्षेप में जानना हो तो लेखक की छोटी सी पुस्तिका “पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक और उसकी ग्यारह प्रतिमाएँ" के नाम से पं. टोडरमल स्मारक ट्रस्ट से प्रकाशित हो चुकी है, उससे ज्ञात किया जा सकता है। इतना ही संक्षेप से समझ लेना चाहिए कि, सम्यज्ञानी पुरुष की जैसे-जैसे आत्मानुभव की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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