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________________ २२ ) ( सुखी होने का उपाय भाग - ५ है । ज्ञेय को यह पता ही नहीं होता कि कोई उसको जान भी रहा है । वास्तविक स्थिति तो यह है कि ज्ञान की पर्याय स्वयं इस योग्यता के साथ उत्पन्न होती है कि वह पर्याय उस समय कौन से ज्ञेय को जानेगी। उसके उत्पाद काल में अनंत ज्ञेयों में से मात्र उसी ज्ञेय पर उस ज्ञान का लक्ष्य जाता है जिसको जानने की योग्यता लेकर उस पर्याय का जन्म हुआ है। क्योंकि प्रमेयत्वगुण तो सभी द्रव्यों में है, उनमें से मात्र उस ही ज्ञेय को जानने का कारण क्या ? उत्तर स्पष्ट है कि यह जानना ज्ञेय की कृपा का फल नहीं है, ज्ञान की जैसी योग्यता होती है, मात्र वही उसका ज्ञेय बनता है और ऐसा ही कहा भी जाता है । यही ज्ञान का स्वभाव है । अतः संसार के सभी जीवों का स्वभाव तो इसीप्रकार का ही है। I प्रश्न होता है कि ज्ञेय से अलग रहते हुए भी ज्ञान, जान कैसे लेता है ? इस प्रश्न का समाधान चक्षु के दृष्टान्त से समझेंगे। जैसे चक्षु दृश्य पदार्थ से अत्यन्त दूर रहते हुए तथा वह पदार्थ भी चक्षु से दूर वर्तते हुए भी, चक्षु उन पदार्थों को जान लेती है । प्रश्न होता है— उसका जानना किसप्रकार होता है ? समाधान यह है कि चक्षु के अन्दर काली टीकी जिसको आधुनिक भाषा में लेन्स कहते हैं उसमें, दृश्य पदार्थ का प्रतिबिम्ब पड़ता है, उस प्रतिबिम्ब को ही वह चक्षु देखती है। यह चक्षु की असाधारण सामर्थ्य है। अगर उस लेन्स के ऊपर मोतियाबिन्द आ जावे तो उस चक्षु की टीकी पर दृश्य पदार्थ का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता। फलतः दृश्य पदार्थ को नहीं देख पाती, क्योंकि उसका प्रतिबिम्ब चक्षु में नहीं आया। अगर ज्ञेय से ज्ञान होता तो उस चक्षु को भी दिख जाना चाहिए था । इसीप्रकार आत्मा की, ज्ञानपर्याय की, जिस ज्ञेय को जानने की योग्यता जिस समय होती है, उस समय उन ही ज्ञेयों के आकार वह ज्ञान की पर्याय परिणमित होती है, चक्षु की भाँति, यर्थाथत: वे ज्ञेयाकार ज्ञान की ही पर्याय हैं वास्तव में तो ज्ञानाकार ही हैं। आत्मा अपने ज्ञानाकारों को ही जानता है । पर को जानता है, ऐसा कहना तो यथार्थतः स्थूल उपचार है । वास्तव में तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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