SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विषय परिचय) (२३ आत्मा की ज्ञान पर्याय, अपने ही ज्ञानाकारों को जानती है। इस अपेक्षा तो आत्मा स्व को ही जानता है अर्थात् स्वप्रकाशक ही है लेकिन वे ज्ञानाकार ज्ञेय के आकार होने से, आत्मा परज्ञेयों को जानने वाला उपचार से कहा जाता है। यथार्थत: पर ज्ञेयों को भी ज्ञान तो स्व के माध्यम से ही जानता है। इस स्वाभाविक प्रक्रिया में ज्ञेय का तो कुछ भी कार्य नहीं है। यह प्रक्रिया तो, ज्ञेयों से निरपेक्ष रहते हुए आत्मा में होती रहती है। यह तथ्य इसप्रकार भी प्रमाणित होता है कि ज्ञान अच्छे अथवा बुरे कैसे भी ज्ञेय को जाने तो भी ज्ञान उसके कारण किंचित् मात्र भी प्रभावित नहीं हो पाता। जैसे विष्टा को जानने वाला ज्ञान, विष्टा तुल्य अपवित्र नहीं हो जाता तथा अमृत को जानने वाला ज्ञान, अमृततुल्य पवित्र नहीं बन जाता। इससे सिद्ध होता है कि ज्ञान तो हरप्रकार ज्ञेय से निरपेक्ष ही वर्तता है। इतना होते हुए भी लाचारी यह है कि ज्ञेय की अपेक्षा लिये बिना उस ज्ञान पर्याय की स्वभाव सामर्थ्य का परिचय कराना भी संभव नहीं है। हम छद्मस्थ अज्ञानियों को तो परप्रकाशक ज्ञान के कार्य से ही, आत्मा के अस्तित्व का विश्वास होता है। स्वप्रकाशक ज्ञान का परिणमन तो अनुभव की चीज है। अगर मेरा आत्मा किसी भी पर को जानेगा ही नहीं तो दूसरा आत्मा मुझे भी नहीं जानेगा? लेकिन यह तो प्रत्यक्ष से बाधित है। सभी आत्माएं प्रत्यक्षरूप से परज्ञेयों को जानती ही हैं, अत: आत्मा का स्व-पर प्रकाशक स्वभाव ही वस्तु का स्वभाव है। अरहंत भगवान के ज्ञान से भी प्रमाणित है कि उनका ज्ञान भी स्व के ज्ञानपूर्वक लोकालोक को भी जानता है । आत्मा का ज्ञान अगर पर का भी ज्ञायक नहीं हो तो विश्व ही सिद्ध नहीं होगा, छह द्रव्य ही सिद्ध नहीं होंगे। हर एक द्रव्य अपने लिये आप स्व है तो, उसकी अपेक्षा, अन्य द्रव्य पर ही तो होंगे । उनका अस्तित्व ही नहीं माना जावे तो विश्व-व्यवस्था ही नहीं रहेगी। लेकिन ऐसा होना तो किसी प्रकार भी संभव नहीं हो सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy