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________________ विषय परिचय ) ( २१ लेकिन ऐसा होना संभव ही नहीं हैं, वस्तुस्वभाव तो बदल नहीं सकता । उक्त चर्चा का निष्कर्ष यह है कि मोक्षमार्ग प्राप्त करने के लिये आत्मा का स्वभाव एवं जानन क्रिया की वास्तविक प्रणाली का यथार्थ स्वरूप समझना, अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है । 1 उपरोक्त समस्या का समाधान प्रवचनसार के प्रथम अधिकार ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन से प्राप्त होता है। इस पर भी चर्चा भाग-४ में की गई है । आचार्यश्री ने उक्त अधिकार को शुद्धोपयोग, ज्ञान, सुख एवं शुभभाव के रूप में चार अर्न्तअधिकारों के द्वारा उक्त विषय का सांगोपांग विवेचन किया है। आचार्यश्री ने शुद्धोपयोग के द्वारा ज्ञान की पूर्णता को प्राप्त, आत्मा को आदर्श रूप में रखकर आत्मा के सुख का परिचय, आत्मा का स्वरूप समझाने के लिये कराया है। इसप्रकार इस अधिकार में आचार्य श्री ने हमारी समस्या का पूर्ण समाधान दे दिया है । आत्मा की जानन क्रिया का स्वभाव ही ऐसा है कि उसकी वास्तविक कार्य प्रणाली में विकार उत्पत्ति का अवकाश ही नहीं रहता । आत्मा के ज्ञानका स्वभाव स्व-परप्रकाशक होते हुए भी, जानने की क्रिया तो उसकी पर्याय में, अर्थात् आत्मा के ही प्रदेशों में ही तो होती है। आत्मा का ज्ञान, स्वलक्ष्यपूर्वक अपने स्वामी को तो अपने में ही रहकर जान लेता है। लेकिन पर को जानने के लिये अपने को छोड़कर आत्मा परज्ञेय तक जाता नहीं तथा परज्ञेय भी अपने स्थान को छोड़कर उस ज्ञान के पास आते नहीं; लेकिन जानना तो हो ही जाता है। इससे यह स्पष्ट है कि आत्मा के ज्ञान का सामर्थ्य ही ऐसा अचिंत्य एवं अद्भुत है कि अपने-आप में ही रहते हुए, अपने से अत्यंत भिन्न, ऐसे ज्ञेयतत्त्वों को अपनी सामर्थ्य से जान लेता है । यह सामर्थ्य तो ज्ञान में है, ज्ञेय का तो इसमें कोई प्रकार का भी योगदान नहीं है। इतना अवश्य है कि सभी द्रव्यों में सामान्य रूप से प्रमेयत्व गुण विद्यमान हैं। अतः उनमें से किसी को भी, जब भी, जो भी तथा एक साथ अनेकों का ज्ञान भी, जानना चाहे तो जान सकता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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