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(सुखी होने का उपाय भाग - ५
क्या है एवं ज्ञान की जानने की क्रिया किसप्रकार होती है, इस पर चर्चा है। भाग-४ में इन विषयों पर चर्चा की गई है।
ज्ञातृतत्त्व का स्वरूप समझाने के लिये शुद्धोपयोग परिणत भगवान अरहंत के ज्ञान के स्वरूप की विस्तार से चर्चा है। क्योंकि स्वभाव तो सभी आत्माओं का अरहंत समान ही है तथा जानन क्रिया का स्वभाव भी समान है। अरहंत की जानन क्रिया ही ऐसी है कि लोकालोक के समस्त ज्ञेयों को जानते हुए भी उनको मोह रागादि उत्पन्न नहीं होते। अत: अरहंत के प्रकट ज्ञान को जानने से हमको, हमारे स्वभाव का ज्ञान हो जाता है और ऐसी श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है कि उनके जैसी हमारी भी जाननक्रिया का परिणमन हो तो, हमको भी मोह रागादि उत्पन्न नहीं हो सकते। ऐसे मार्ग का स्पष्ट ज्ञान होने से, आत्मा को करने योग्य पुरुषार्थ का भी स्पष्ट ज्ञान हो जाता है।
यथार्थत: आत्मा का प्रयोजन तो एकमात्र सुख प्राप्त करना है, अत: आत्मा को वह सुख कैसे प्राप्त होगा? उस मार्ग को समझना एवं तदनुसार पुरुषार्थ कर, वह सुख प्राप्त करना ही, एकमात्र कर्तव्य रह जाता है। - अपने आत्मा का स्वरूप एवं उसकी कार्यप्रणाली का यथार्थ स्वरूप समझने से ही उपरोक्त प्रयोजन की प्राप्ति हो सकती है। आत्मा का स्वरूप कहो अथवा स्वभाव कहो अथवा सर्वस्व कहो, जो कुछ भी कहो, ज्ञान ही है। अर्थात् आत्मा तो ज्ञानस्वभावी ही है, ज्ञान का कार्य तो जानना ही है और ज्ञान आत्मा का है, अत: अपने आत्मा को जानता रहे, यह तो उसका कर्तत्त्व ही है। लेकिन यह अपने आपको जानने के साथ पर को भी जान लेता है - यह विशेषता है। जानने की यथार्थ प्रक्रिया का फल मोक्ष है और उसकी भूल से ही संसार मार्ग उत्पन्न हो जाता है। अगर पर को जानने की सामर्थ्य ही आत्मा में नहीं होती, तो अन्य द्रव्यों की तरह आत्मा में भी विकार, उत्पन्न होने का अवकाश ही नहीं रहता।
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