________________
विषय परिचय )
एक आत्मार्थ का, अन्य नहीं मन रोग" उसने अपने जीवन का लक्ष्य मात्र एक आत्मोपलब्धि ही बना लिया है। सांसारिक सभी प्रकार की समस्याओं के लिये, वह अपने को अकर्मण्य मानने लगता है। भगवान अमृतचन्द्र की निम्न पंक्ति को चरितार्थ कर लेता है कि- “ अयिकथमपि मृत्वा तत्त्व कौतूहली सन्” अर्थात् एक बार मरकर भी तू अपने आत्मा के दर्शन तो कर ? ऐसी अन्तस्थिति प्राप्त आत्मार्थी को यथार्थ मार्ग आगामी भागों से प्राप्त होगा ।
भाग - ४ का मुख्य विषस समयसार की गाथा १४४ की टीका के आधार पर आत्मा के ज्ञानस्वभाव को समझना है। उक्त ज्ञान का स्वभाव स्व-पर प्रकाशक है, वह ज्ञेयों का ज्ञान किसप्रकार से करता है, जिससे मोह रागादि भाव उत्पन्न नहीं होते। इस विषय को विस्तार से समझने के लिये, प्रवचनसार ग्रन्थ के अध्ययनपूर्वक, ज्ञानस्वभाव एवं ज्ञेयस्वभाव तथा उसको जानने की पद्धति को समझने का प्रयास भाग-४ में किया गया है । प्रवचनसार के अधिकारों के नामों से ही उनके विषयों का परिचय हो जाता है । अधिकारों के नाम हैं- ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन एवं ज्ञेयतत्त्व प्रज्ञापन तथा चरणानुयोग सूचक चूलिका । इस ग्रंथराज में उपरोक्त तीनों विषयों पर गंभीरतापूर्वक विस्तार से चर्चा की गई है ।
( १९
जिसका अवलम्बन लेने का आचार्य श्री ने संकेत किया है, उस द्रव्य श्रुत की महिमा क्या है तथा उसमें आत्मा ज्ञानस्वभावी है ऐसा कैसे निर्णय करना इत्यादि विषयों पर चर्चा भाग-४ में की गई है । समस्त द्वादशांग का सार तो अपने ज्ञानस्वभावी आत्मा की पहिचान कराने का ही है।
अपने ज्ञानस्वभावी आत्मा को पहिचानकर उसमें अपनापन स्थापन करना तथा ज्ञेयों के स्वभावों को जानकर उनमें परपना स्थापन कर, ज्ञेयों की ओर से अपने उपयोग को उपेक्षित कर आत्मसन्मुख करना, यही भेदज्ञान का मूल आधार है । अतः ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन में आत्मा का स्वभाव
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org