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________________ देशनालब्धि की मर्यादा) (२२७ तिर्यंच दशा में भी, बिना कोई शास्त्र अभ्यास करे, इस मार्ग को अपनाकर उनने जब भी अपना उपयोग आत्मसन्मुख कर अनुसरण किया तो वे भी पूर्ण वीतरागी होकर तीर्थंकर पद प्राप्तकर सिद्ध दशा को प्राप्त हुए। संक्षेप में सब कथनों का तात्पर्य यही है कि जैसे भी बन सके उपरोक्त उपाय से अपने आत्मा में एकमात्र वीतरागता प्रगट करने का पुरुषार्थ करने योग्य है, क्योंकि उस ही से आत्मा चरम दशा को प्राप्त कर सकता है। इन सब कारणों से वीतरागता उत्पन्न करने का यथार्थ मार्ग समझना ही एकमात्र कल्याणकारी है, यह समझ में सहज ही आ जाने योग्य है। आत्मा के स्वरूप को अस्ति की मुख्यता से समझने की प्रणाली आत्मा का अस्ति की अपेक्षा स्वरूप समझने के लिए सर्वप्रथम भगवान सिद्ध की आत्मा को अपने ज्ञान में उतारना चाहिए। भगवान सिद्ध की आत्मा द्रव्य गुण तथा पर्याय तीनों से एकरूप हो गयी है। अर्थात् उनका जैसा द्रव्य था, जैसे गुण थे, वैसा ही पूर्ण सामर्थ्य पर्याय में प्रगट हो गया। वेदन और ज्ञान का विषय पर्याय से ही तो प्रगट होता है। सारी जिनवाणी में पर्याय के माध्यम से ही हरेक वस्तु को समझाया गया है। इसलिये हमें भी यदि सिद्ध के स्वरूप को समझना है तो, उनकी पर्याय में जो-जो सामर्थ्य एवं विशेषताऐं प्रगट हुई हैं, उनको ही मुख्य बनाकर समझने से हमको हमारी आत्मा का स्वरूप समझ में आ सकता है तथा उसको ही अपना ध्येय बनाने से मेरा आत्मा भी उनके समान बन सकता है। वास्तव में द्रव्य अपेक्षा से तो मेरा आत्मा भी सिद्ध की आत्मा जैसा ही है। सिद्ध भगवान के द्रव्य में जो सामर्थ्य न होता तो जो सामर्थ्य और विशेषताऐं सिद्ध भगवान की पर्याय में प्रगट हुए वे सब, द्रव्य में ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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