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________________ २२८) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ त्रिकाल विद्यमान नहीं होते तो कहाँ से प्रगट हो गये? इसी के अनुसार, संसार के सभी जीवों के द्रव्य भी तो, वैसे ही गुण और पर्याय वाले हैं और पर्याय में इन स्वभावों के प्रगट होने का सामर्थ्य भी है। क्योंकि द्रव्य की अपेक्षा तो सभी जीव उसी जाति के ही हैं। इसलिये भगवान सिद्ध की पर्याय में जो प्रगटता हुई है, उससे कोई भी जीवद्रव्य कम अथवा अधिक सामर्थ्य वाला नहीं हो सकता । हरेक द्रव्य-"उत्पाद व्ययध्रौव्ययुक्तं सत्” है। भगवान सिद्ध की आत्मा भी “उपादव्ययध्रौव्य- युक्तं सत्” है इसलिए अनन्त जीवराशि में से किसी में भी, द्रव्य अपेक्षा कोई अन्तर नहीं हो सकता और न है ही। प्रश्न :- फिर संसारी और सिद्ध में इतना भारी अन्तर क्यों है, यह तो प्रत्यक्ष परस्पर विरोधी दिखता है ? समाधान :- जो सिद्ध भगवान की पर्याय में सामर्थ्य और विशेषताएं प्रगट हुई हैं वे जीवमात्र के ध्रुवद्रव्य में तो सब की सब जैसी की तैसी सामर्थ्य और विशेषताऐं निरन्तर विद्यमान थीं व रहती हैं, लेकिन पर्याय का स्वभाव ही क्षण-क्षण में बदलने का है इसलिये वे पर्यायें अपना रूप बदल सकती हैं और बदलती हैं। इसीलिये संसारी जीव के विकारी रूप एवं सिद्ध की पर्याय के रूप में महान अन्तर दिखाई देता है? और दिखना भी चाहिए। प्रवचनसार गाथा ११४ की टीका के भावार्थ में लिखा है कि "प्रत्येक द्रव्य सामान्य विशेषात्मक हैं इसलिये प्रत्येक द्रव्य वह का वही भी रहता है और बदलता भी है।" इसलिये मेरी पर्याय और सिद्ध की पर्याय में अंतर है, हमारी वर्तमान पर्याय जो विकारी रूप में विद्यमान है वह पर्याय के बदलने के स्वभाव के कारण नाश होकर सिद्ध के जैसी निर्मल पर्याय हो सकती है, यह विश्वास होता है और यह भी पुरुषार्थ जाग्रत होता है कि यह पर्याय मेरा स्वभावभाव नहीं है, और जो पर्याय अनन्त काल तक एक सरीखी बनी रहे और मेरे For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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