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________________ २२६) (सुखी होने का उपाय भाग - ५ कर्तव्य है और यही द्वादशांग में सारभूत है। उपरोक्त आगम वाक्यों का भी मात्र यही एक सारांश है। वीतरागता का स्वरूप क्या ? वास्तव में वीतरागता तो आत्मा का स्वभाव है क्योंकि आत्मा जिस स्वभाव में अनन्तकाल तक स्थित रह सकता है, वही तो स्वभाव हो सकता है। उस स्वभाव में कहीं रागादि का अंश भी नहीं है इसलिए आत्मा का स्वरूपतोरागकाअभावरहने से निराकुलतारूपी आनंदस्वभावी ही है। यही आत्मा का अस्ति की अपेक्षाओं वास्तविक रूप है। उसी स्वरूप को राग-द्वेषादि विकारी भावों के अभाव की अपेक्षा द्वारा वर्णन करके नास्ति के स्वरूप का ज्ञान कराया जाता है। क्योंकि हमारे को अनादिकाल से राग-द्वेषादिक का ही अनुभव हो रहा है, इसलिये हम उस ही को जानते हैं, पहिचानते हैं और उसी का वेदन हमें दुःखकर भी अनुभव हो रहा है । इसलिये उसी के अभाव को, वीतरागता का लक्षण कहकर वीतरागता का ज्ञान कराया है। जिसका साक्षात् आदर्श-मॉडल भगवान सिद्ध की आत्मा है। उनकी आत्मा में जो भी वर्तमान में व्यक्त प्रगट है, वही वीतरागता आत्मा की वीतरागता का अस्ति अपेक्षा स्वरूप है। वह दशा अपनी आत्मा की पर्याय में प्रगट करना ही आत्मार्थी का एकमात्र उद्देश्य है। इसलिये संक्षेप से तो तात्पर्य यही है कि समस्त द्वादशांग को पढ़कर भी एकमात्र वीतरागता प्राप्त करने का उपाय ही समझने योग्य है। अर्थात् जिसप्रकार और जैसे भी हो उस ही प्रकार को अपनाकर उसमें से एकमात्र वीतरागता उत्पन्न करने का मार्ग ही समझ लेना और उसके अनुसार अपने उपयोग को आत्मसन्मुख कर लेना ही उस मार्ग का अनुसरण करना है, आत्मा को अपना उद्देश्य सफल करने का यही एकमात्र उपाय है। भगवान महावीर स्वामी की आत्मा ने पूर्व भव में सिंह जैसी For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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