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( सुखी होने का उपाय भाग - ५
इस ही उद्देश्य को लेकर मोक्षमार्ग प्रकाशक में छह द्रव्यों तथा तत्वों को स्व-पर के रूप में पहिचानने को लिखा है और उसके पहिचान होने से ही अर्थात् अपने जीवतत्व में अपनापन आते ही मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति होने का लिखा है । अत: उपरोक्त विषयों को स्व-पर के रूप में पहिचान कर श्रद्धा प्रगट करना ही मोक्षमार्ग प्रारंभ करने का सर्वप्रथम आवश्यक कर्तव्य है ।
प्रश्न होता है आपके कथन से एवं जिनवाणी के अध्ययन से यह समझ में तो आ जाता है कि एक मेरे जीवद्रव्य के अतिरिक्त अन्य सभी छहों द्रव्य मेरे द्रव्य से तो पर ही हैं उनको स्व मान भी लूँ तो भी स्व तो नहीं बन जाते, वे तो पर ही रहते हैं। इसीप्रकार तत्त्वों में भी स्थाई अर्थात् अनादिअनंत काल तक अक्षुण्ण रूप से अस्तित्व बना रहने वाला ज्ञानस्वरूपी ध्रुवतत्त्व तो अकेला मेरा जीवतत्व ही है इसलिये वही एकमात्र स्व के रूप में स्वीकार करने योग्य है। अन्य सभी तत्त्व पर्याय तत्व हैं, वे पर्याय ही हैं और पर्याय का तो जीवनकाल ही मात्र एक समय का होने से उसका तो हर समय उत्पाद और व्यय अर्थात् जीवन मरण होता ही रहता है । उसमें अपनत्व मानने से तो मुझे मेरे ही जीवन-मरण का महान दुःख अनुभव करना पड़ेगा। अत: उनको तो पर ही मानकर, उसके प्रति तो अपनत्व अर्थात् ममत्व छोड़ना ही पड़ेगा, अन्यथा शांति अर्थात् निराकुलता प्राप्त नहीं हो सकेगी; आकुलता का वेदन ही भोगना पड़ेगा ।
लेकिन उपरोक्त प्रकार से सब कुछ समझ में आ जाने पर भी हमारी परिणति में तो किंचित् मात्र भी परिवर्तन, अनुभव में नहीं आता । और मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति हो जाने की बात भी अनुभव में नहीं आती । इसलिये यह समझने की जिज्ञासा है कि उपरोक्त सब कुछ समझ लेने पर भी मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति आरंभ होने के लिये, क्या कमी पूर्ति करना शेष रह जाता है ?
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