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देशनालब्धि की मर्यादा)
देशनालब्धि की मर्यादा
समझ लेने मात्र से ही, परिणति में परिवर्तन नहीं हो जाता
समझने का कार्य तो धारणा ज्ञान में हो जाता है, लेकिन उसके समझ लेने मात्र से रुचि में परिवर्तन तो नहीं हो जाता ? अतः परिणति में परिवर्तन का मूल आधार तो रुचि का परिवर्तन होना है। जैसे किसी लौकिक शिक्षा अथवा विषय का ज्ञान भी अपने धारणा ज्ञान में हो जाता है उससे रुचि का क्या संबंध रहता है। उसीप्रकार आत्मा के संबंध की भी जानकारी धारणा ज्ञान में हो जाती है इससे रुचि परिवर्तन होना कैसे संभव हो सकता है ?
प्रश्न :- फिर जिनवाणी में आगम के अध्ययन की इतनी महिमा क्यों की गई है। यहाँ तक कथन आता है कि आगम अभ्यास के बिना मुनिपना भी यथार्थ नहीं है । प्रवचनसार की गाथा २३६ में कहा है कि :
:–
( २२१
“ इस लोक में जिसकी आगमपूर्वक दृष्टि नहीं है, उसके संयम नहीं है। इसप्रकार सूत्र कहता है और असंयत वह श्रमण कैसे हो सकता है ?
उपरोक्त गाथा का स्पष्ट आशय है कि आगम अभ्यास से आत्म दर्शन अर्थात् सम्यग्दर्शन होता है। आप बतलाते हैं कि आगम ज्ञान तो मात्र धारणा में ही रह जाता है, उससे सम्यग्दर्शन अर्थात् आत्मदर्शन नहीं होगा। यह बात परस्पर विरोधी लगती है ?
समाधान :- उक्त गाथा का अभिप्राय बिल्कुल सत्य है, गाथा में स्पष्ट है कि सम्यग्दर्शन आगम के अभ्यास बिना नहीं हो सकता । क्योंकि सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का यथार्थ मार्ग तो आगम अभ्यास से ही प्राप्त होगा । मार्ग यथार्थ प्राप्त हुए बिना, प्राप्तव्य कैसे प्राप्त हो सकता है । अत: आगम तो मार्गदृष्टा मात्र है । उस मार्ग का अनुसरण करने पर
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