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द्रव्यों व तत्त्वों को स्व-पर के रूप में पहिचानें )
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में चल रहा है। इनमें से प्रथम विषय को तो विस्तार से समझा तथा मिथ्यात्व-रागादिक क्यों त्यागने योग्य त्यागने आदि विषयों को भी संक्षेप में समझा लेकिन अन्य विषयों को भी समझना शेष है। फिर भी उपरोक्त विषयों के समझने से हमारी मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति कैसे होती है, उस पर कुछ संक्षेप से विचार करते हैं।
लौकिकजनों की भी ऐसी वृत्ति होती है कि जिसको अपना अर्थात् स्व मान लेता है उस पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देता है। जैसे किसी भी अत्यन्त अपरिचित कन्या से, विवाह संबंध निर्णय होते ही अपनत्व उत्पन्न हो जाता है तथा विवाह हो जाने पर तो अपना सब कुछ सर्वस्व समर्पण कर देता है, ऐसा विकल्प ही उत्पन्न नहीं होता कि यह तो अपरिचित है कैसे इसको सर्वस्व समर्पण कर दूं। साथ ही वह कन्या भी पिता के घर के प्रति अब परपना आ जाने से, पिता के घर की हानि को अपनी हानि नहीं समझते हुए पिता के घर से कुछ भी लेकर आने में उसे प्रसन्नता होती है और अपने घर की कोई भी वस्तु पिता के घर चली भी गई हो तो वहाँ से वापस लेकर आने में जरा भी संकोच नहीं करती। यहाँ विचार करना चाहिए कि अपरिचित व्यक्ति को नि:संकोचतापूर्वक सर्वस्व समर्पण कर देने की भावना उत्पन्न हो जाने का कारण क्या था ? अगर खोजा जावे तो मात्र अपनत्व स्थापन हो जाना ही एक कारण सिद्ध होगा।
ठीक इसीप्रकार परमार्थ साधने में भी अर्थात् मोक्षमार्ग प्रारंभ करने में भी मुख्य कारण खोजा जावे तो एकमात्र स्वपना स्थापन करना ही है। आत्मा की मान्यता अर्थात् श्रद्धा में जिसमें अपनापन जम जाता है, आत्मा अपना सर्वस्व अर्थात् अनंत शक्तियों का सामर्थ्य उस ही को समर्पण कर देता है अर्थात् समस्त पुरुषार्थ इस ही ओर कार्यशील हो जाता है।
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